देश की आज़ादी की लड़ाई में न जाने कितने ऐसे व्यक्तित्व हुए, जिन्होंने गुमनाम रहकर जो कुछ देश के लिए किया है, वह सदैव अविस्मरणीय रहेगा। भारत माता के ये सपूत वीरता, पराक्रम व प्रतिभा के साथ अंतिम साँस तक देश के लिए लड़ते, जूझते रहे। ये ही देश की असली ताक़त और आज़ादी की यज्ञवेदी पर सब कुछ कुर्बान करने वाले शहीद है। भारत माता के ऐसे सपूतों में से एक थे-यशवंतराव होलकर।
यशवंतराव होलकर एक ऐसे वीर योद्धा का नाम है जिनकी तुलना विख्यात इतिहासशास्त्री एन. एस. इनामदार ने ‘नेपोलियन’ से की है। ये मध्य प्रदेश की मालवा रियासत के महाराज थे। यशवंतराव होलकर का जन्म सन 1776 में हुआ। इनके पिता थे-तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य का प्रभाव उस समय बहुत बढ़ा हुआ था, लेकिन उनकी यह समृद्धि कुछ लोगों की आँखों में खटकती थी। उन्हीं में से एक ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया भी थे। उनसे होलकर साम्राज्य की यह समृद्धि देखि नहीं गई और उन्होंने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मरवा दिया। बड़े भाई की मृत्यु होने पर यशवंतराव विचलित जरूर हुए, लेकिन उन्होंने शीघ्र ही स्वयं को संभाल लिया। इनकी बहादुरी का प्रमाण मिला सन 1802 में लड़े गए युद्ध से, जिसमें इन्होने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिली जुली सेना को बुरी तरह शिकस्त दी।
कालचक्र के इस दौर में अंग्रेज भारत में तेजी के साथ पाँव पसार रहे थे। अतः उस समय यशवंतराव के समक्ष एक नई चुनौती सामने थी और वह थी-भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद कराना। लेकिन उसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों से सहायता की जरुरत थी। इस कार्य हेतु यशवंतराव ने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया राजपरिवार से हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की मन में ठानी, लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें मौका-ए-वारदात पर दिखा दे दिया और इस प्रकार वे अकेले ही रह गए। उन्होंने अन्य शासकों से भी एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी।
अंततः उन्होंने अकेले दम पर ही अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की ठानी। 8 जून 1808 ईस्वी को उन्होंने पहली बार अंग्रेजी सेना को पराजित किया, फिर 8 जुलाई 1804 ईस्वी में कोटा से अंग्रेजों को खदेड़ा। इसके बाद तो उनकी विजय का अभियान निकल पड़ा। 11 सितम्बर,1804 ईस्वी को अंग्रेज जनरल वेलेस ने लार्ड ल्यूक को पत्र लिखा की “यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। ” इसी बात को मददेनजर रखते हुए अंग्रेजों ने उन पर हमला कर दिया। इस युद्ध में यशवंतराव ने भरतपुर के महाराज रंजीत सिंह के मिलकर अंग्रेजी सेना को धूल चटाई, लेकिन उस लोभ का क्या किया जाए, जिसके वश में आकर व्यक्ति अँधा हो जाता है, उसे सही-गलत की पहचान नहीं हो पाती और वह पाने ईमान से डगमगा जाता है। यही हाल महाराज रंजीत सिंह का हुआ। उन्होंने यशवंतराव का साथ छोड़कर अंग्रेजों का साथ देना व सहयोग करना स्वीकार किया। यह क्षण यशवंतराव के लिए बड़ा मर्मान्तक था। वे सोच समझ नहीं पा रहे थे की ऐसा क्यों हो रहा है ?
उस समय यशवंतराव की वीरता के किस्से जगह-जगह फ़ैल गए थे, लोग उनकी वीरता व पराक्रम से बहुत प्रभावित थे, उनका बहुत सम्मान करते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि यशवंतराव का साथ देने के लिए उनके पुश्तैनी दुश्मन सिंधिया सामने आए और उन्हें सहयोग देने लगे, लेकिन इस बात से अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई और उन्होंने निर्णय लिया की यशवंतराव से यदि संधि कर ली जाए तो इसमें ही उनकी भलाई है।
यह निर्णय लेने पर पहली बार अंग्रेजों ने किसी के सामने बिना शर्त संधि की पहल की। यशवंतराव से संधि इस तरह की; कि उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है सब लौटा दिया जाए, पर इसके बदले में यशवंतराव अंग्रेजों से युद्ध न करें। भारत माँ के सच्चे सपूत यशवंतराव को यह कभी भी गवारा न था और इसलिए उन्होंने संधि करने से इंकार कर दिया; क्योंकि उनका एक मात्र लक्ष्य था अंग्रेजों को देश के बाहर खदेड़ देना। और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे देश के सभी शासकों को एकजुट करने में जुट गए। दुर्भाग्यवश उन्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिली। उनका साथ देने आए राजा सिंधिया ने भी अंग्रेजों से संधि कर ली।
ऐसी स्थिति में यशवंतराव को और कोई उपाय नहीं सुझा और उन्होंने अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। वे अब अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला-बारूद का कारखाना खोला और उसमें दिन-रात मेहनत करने लगे। लगातार परिश्रम करने के कारण उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, लेकिन उन्होंने इस और ध्यान नहीं दिया। और फिर 28 अक्टूबर, 1811 ईस्वी में मात्र 35 वर्ष की उम्र में वे अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए। वे एक ऐसे शासक थे जिन पर अंग्रेज कभी अपना अधिकार नहीं जमा पाए। अपने जीवन की छोटी से उम्र को उन्होंने युद्ध के मैदान में झोंक दिया। यदि देश के ने भारतीय योद्धा शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद देश की तस्वीर आज कुछ और ही होती। यशवंतराव के सामान साहसी, वीर और राष्ट्रभक्त योद्धा इतिहास के पन्नों में भले ही गुमनाम हों, परन्तु ऐसे महापुरुष ही हमारे देश की शक्ति और शहादत के प्रतिक है।
यशवंतराव होलकर एक ऐसे वीर योद्धा का नाम है जिनकी तुलना विख्यात इतिहासशास्त्री एन. एस. इनामदार ने ‘नेपोलियन’ से की है। ये मध्य प्रदेश की मालवा रियासत के महाराज थे। यशवंतराव होलकर का जन्म सन 1776 में हुआ। इनके पिता थे-तुकोजीराव होलकर। होलकर साम्राज्य का प्रभाव उस समय बहुत बढ़ा हुआ था, लेकिन उनकी यह समृद्धि कुछ लोगों की आँखों में खटकती थी। उन्हीं में से एक ग्वालियर के शासक दौलतराव सिंधिया भी थे। उनसे होलकर साम्राज्य की यह समृद्धि देखि नहीं गई और उन्होंने यशवंतराव के बड़े भाई मल्हारराव को मरवा दिया। बड़े भाई की मृत्यु होने पर यशवंतराव विचलित जरूर हुए, लेकिन उन्होंने शीघ्र ही स्वयं को संभाल लिया। इनकी बहादुरी का प्रमाण मिला सन 1802 में लड़े गए युद्ध से, जिसमें इन्होने पुणे के पेशवा बाजीराव द्वितीय व सिंधिया की मिली जुली सेना को बुरी तरह शिकस्त दी।
कालचक्र के इस दौर में अंग्रेज भारत में तेजी के साथ पाँव पसार रहे थे। अतः उस समय यशवंतराव के समक्ष एक नई चुनौती सामने थी और वह थी-भारत को अंग्रेजों के चंगुल से आज़ाद कराना। लेकिन उसके लिए उन्हें अन्य भारतीय शासकों से सहायता की जरुरत थी। इस कार्य हेतु यशवंतराव ने नागपुर के भोंसले और ग्वालियर के सिंधिया राजपरिवार से हाथ मिलाया और अंग्रेजों को खदेड़ने की मन में ठानी, लेकिन पुरानी दुश्मनी के कारण भोंसले और सिंधिया ने उन्हें मौका-ए-वारदात पर दिखा दे दिया और इस प्रकार वे अकेले ही रह गए। उन्होंने अन्य शासकों से भी एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने का आग्रह किया, लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं मानी।
अंततः उन्होंने अकेले दम पर ही अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने की ठानी। 8 जून 1808 ईस्वी को उन्होंने पहली बार अंग्रेजी सेना को पराजित किया, फिर 8 जुलाई 1804 ईस्वी में कोटा से अंग्रेजों को खदेड़ा। इसके बाद तो उनकी विजय का अभियान निकल पड़ा। 11 सितम्बर,1804 ईस्वी को अंग्रेज जनरल वेलेस ने लार्ड ल्यूक को पत्र लिखा की “यदि यशवंतराव पर जल्दी काबू नहीं पाया गया तो वे अन्य शासकों के साथ मिलकर अंग्रेजों को भारत से खदेड़ देंगे। ” इसी बात को मददेनजर रखते हुए अंग्रेजों ने उन पर हमला कर दिया। इस युद्ध में यशवंतराव ने भरतपुर के महाराज रंजीत सिंह के मिलकर अंग्रेजी सेना को धूल चटाई, लेकिन उस लोभ का क्या किया जाए, जिसके वश में आकर व्यक्ति अँधा हो जाता है, उसे सही-गलत की पहचान नहीं हो पाती और वह पाने ईमान से डगमगा जाता है। यही हाल महाराज रंजीत सिंह का हुआ। उन्होंने यशवंतराव का साथ छोड़कर अंग्रेजों का साथ देना व सहयोग करना स्वीकार किया। यह क्षण यशवंतराव के लिए बड़ा मर्मान्तक था। वे सोच समझ नहीं पा रहे थे की ऐसा क्यों हो रहा है ?
उस समय यशवंतराव की वीरता के किस्से जगह-जगह फ़ैल गए थे, लोग उनकी वीरता व पराक्रम से बहुत प्रभावित थे, उनका बहुत सम्मान करते थे। शायद यही कारण रहा होगा कि यशवंतराव का साथ देने के लिए उनके पुश्तैनी दुश्मन सिंधिया सामने आए और उन्हें सहयोग देने लगे, लेकिन इस बात से अंग्रेजों की चिंता बढ़ गई और उन्होंने निर्णय लिया की यशवंतराव से यदि संधि कर ली जाए तो इसमें ही उनकी भलाई है।
यह निर्णय लेने पर पहली बार अंग्रेजों ने किसी के सामने बिना शर्त संधि की पहल की। यशवंतराव से संधि इस तरह की; कि उन्हें जो चाहिए, दे दिया जाए। उनका जितना साम्राज्य है सब लौटा दिया जाए, पर इसके बदले में यशवंतराव अंग्रेजों से युद्ध न करें। भारत माँ के सच्चे सपूत यशवंतराव को यह कभी भी गवारा न था और इसलिए उन्होंने संधि करने से इंकार कर दिया; क्योंकि उनका एक मात्र लक्ष्य था अंग्रेजों को देश के बाहर खदेड़ देना। और इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे देश के सभी शासकों को एकजुट करने में जुट गए। दुर्भाग्यवश उन्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिली। उनका साथ देने आए राजा सिंधिया ने भी अंग्रेजों से संधि कर ली।
ऐसी स्थिति में यशवंतराव को और कोई उपाय नहीं सुझा और उन्होंने अंग्रेजों पर हमला बोल दिया। वे अब अंग्रेजों को अकेले दम पर मात देने की पूरी तैयारी में जुट गए। इसके लिए उन्होंने भानपुर में गोला-बारूद का कारखाना खोला और उसमें दिन-रात मेहनत करने लगे। लगातार परिश्रम करने के कारण उनका स्वास्थ्य गिरने लगा, लेकिन उन्होंने इस और ध्यान नहीं दिया। और फिर 28 अक्टूबर, 1811 ईस्वी में मात्र 35 वर्ष की उम्र में वे अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गए। वे एक ऐसे शासक थे जिन पर अंग्रेज कभी अपना अधिकार नहीं जमा पाए। अपने जीवन की छोटी से उम्र को उन्होंने युद्ध के मैदान में झोंक दिया। यदि देश के ने भारतीय योद्धा शासकों ने उनका साथ दिया होता तो शायद देश की तस्वीर आज कुछ और ही होती। यशवंतराव के सामान साहसी, वीर और राष्ट्रभक्त योद्धा इतिहास के पन्नों में भले ही गुमनाम हों, परन्तु ऐसे महापुरुष ही हमारे देश की शक्ति और शहादत के प्रतिक है।
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