Saturday, January 30, 2016

कश्मीर की देश भक्ती ने गजनी को दो बार धुल चटाई थी

जब कश्मीर की देश भक्ती ने गजनी को दो बार धुल चटाई थी 

राजाओं की गौरवपूर्ण श्रंखला से कश्मीर का इतिहास भरा पड़ा है। जब हम कश्मीर के इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों का अवलोकन करते हैं तो ज्ञात होता है कि भारतीय संस्कृति को अपनी गौरव-गरिमा से लाभान्वित करने में कश्मीर के राजाओं ने महत्वपूर्ण योगदान किया। चूंकि यह योगदान अब से 1000 वर्ष पूर्व या उससे भी पूर्व किया जा रहा था तो इस योगदान को कश्मीर के राजाओं का भारतीय स्वातंत्रय समर में योगदान भी माना जाना चाहिए। कारण ये है कि जिस काल को भारतीय इतिहास का अंधकार युग कहा जाता है उसमें गौरवकृत्यों का उपलब्ध होना निश्चय ही इतिहास का गौरवपूर्ण पक्ष है। सचमुच एक ऐसा पक्ष कि जिसकी उपेक्षा करने का अर्थ है-आत्महत्या। ….और यह भी सत्य है कि भारत जैसा जीवन्त राष्ट्र कभी भी आत्महत्या के पथ पर नही जा सकता। जहां तक इतिहास के साथ छल करने वालों का प्रश्न है तो ऐसे तो ना जाने कितने छलों को इस जीवन्त राष्ट्र ने हंस हंसकर सहन किया है। आइए, अब हम राजा अवन्तिवर्मन से आगे बढ़ें।

पराक्रमी देशभक्त शंकरवर्मन

राजा अवन्तिवर्मन की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र शंकरवर्मन कश्मीर का राजा बना। यह राजा बहुत ही पराक्रमी था। उसने कश्मीर तक सीमित न रहकर बाहर निकलना ही श्रेयस्कर समझा। अत: अथर्ववेद (12-3-1) के इस आदेश को अंगीकार कर वह राज्य विस्तार के लिए निकल पड़ा कि ‘तुम शक्तिशाली होकर अन्यों पर राज्य करो।’ देशभक्तों को ऋग्वेद (1-80-3) ने भी यह कहकर प्रोत्साहित किया है कि ‘देशभक्त स्वराज्य की उपासना करते हैं।’

जिस देश की संस्कृति राजा को और देशभक्तों को ऐसी प्रेरणा करती हो तो उस देश का शंकरवर्मन अपने कश्मीर के किले में स्वयं को कैसे कैद रख सकता था? किला एक सुरक्षित स्थान अवश्य है, परंतु चाहे वह कितना ही सुरक्षित और स्वैर्गिक आनंद देने वाला क्यों ना हो, दिग्दिगन्त की विजय की कामना करने वाले राजा के लिए तो वह कारागार के समान ही हो जाता है। इसलिए स्वराज्य के साधक राजा के लिए उससे बाहर निकलना ही उचित होता है। अत: शंकरवर्मन कश्मीर से बाहर निकला और उसने ललितादित्य के समय में विजित प्रदेशों को पुन: अपने राज्य में सम्मिलित करने का संकल्प व्यक्त किया। फलस्वरूप उसकी सेनाओं ने काबुल तक अपनी विजय पताका फहराई। काबुल का शासक उस समय लल्लैय्या नाम का हिंदू शासक था। लल्लैय्या शंकरवर्मन का सामना नही कर सका और वह युद्घ में पराजित हो गया। कहा जाता है कि उसकी प्रजा भी उसके साथ नही थी। शंकरवर्मन की विजय पताका बड़े गौरव के साथ काबुल में फहरा उठी। इतिहास लेखकों का मानना है कि सम्राट ललितादित्य के समय में कश्मीर सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली था, और अवन्तिवर्मन के समय में आर्थिक दृष्टि से शक्तिशाली था, जबकि शंकरवर्मन के समय में दोनों रूपों में ही शक्तिशाली हो गया था।

नरेन्द्र सहगल लिखते हैं-’इतिहास जानता है कि काबुल (गान्धार) के बहादुर हिंदू राजाओं और वहां की शूरवीर हिंदू प्रजा ने चार सौ वर्षों तक निरंतर अरबों और अन्य मुस्लिम आक्रमण कारियों का साहस के साथ सामना किया। परंतु एक दिन भी पराधीनता स्वीकार नही की। भारत इस कालखण्ड (663 से 1021 ई. तक) में अपनी उत्तर पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित रख सका।’

शंकरवर्मन के पश्चात उसका व्यवहार कुशल पुत्र गोपालवर्मन कश्मीर के राज्य सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। गोपालवर्मन ने अपने सैन्याधिकारी प्रभाकर देव को काबुल भेजकर शांति व्यवस्था पर अपना नियंत्रण रखा। प्रभाकर देव ने राजा लल्लैय्या से वार्तालाप की और वार्तालाप के उपरांत वहां का शासन लल्लैय्या के पुत्र कामलुक को सौंप दिया।

पराजित राजा को सत्ताच्युत कर वहां का शासन प्रबंध उसी के किसी परिजन को या प्रजा में लोकप्रिय किसी व्यक्ति केा सौंप देना भारत की प्राचीन परंपरा है। रामायण काल में भगवान राम ने रावण को पराजित किया तो वहां का शासन विभीषण को सौंप दिया गया था और महाभारत में कृष्णजी ने कंस को मारा तो अपने  नाना को ही पुन: राज्य गद्दी सौंप दी। यह परंपरा नैतिक भी है और कूटिनीतिक भी है। हां, विदेशियों में ऐसी प्रवृत्ति का सर्वथा अभाव मिलता है। भारतीय शासकों ने अपनी इस परंपरा का तब उल्लंघन करना आरंभ किया था जब उन पर विदेशियों का प्रभाव पड़ने लगा था।

महमूद गजनवी और पराक्रमी राजा संग्रामराज

जो तेगों के साये में पले बढ़े होने का दम्भ भरते रहे हैं और इसी दम्भ  से पनपी क्रूरता के कारण जिन्होंने विश्व में लाखों करोड़ों लोगों का वध किया, उनमें से एक महमूद गजनवी भी था। बड़ी क्रूरता से ईरान और तुर्किस्थान में इस क्रूर आक्रांता ने अमानवीयता का प्रदर्शन किया था। भारत के कुछ क्षेत्रों में भी इसने रक्तिम् होली खेली थी। परंतु कश्मीर की भूमि वह पावन भूमि रही है, जिसने इस क्रूर आक्रांता को एक बार नही अपितु दो-दो बार पराजित कर भगाया। पराजय भी इतनी भयानक थी कि तीसरी बार कश्मीर जाने का सपना ही नही देख सका था-महमूद गजनवी।

गजनवी के समय (1003 से 1028 ई.) कश्मीर पर वीर प्रतापी शासक महाराजा संग्रामराज का शासन था। संग्रामराज ने कश्मीरी सीमाओं को पूर्णत: सुरक्षित रखने तथा विदेशी आक्रांता से कश्मीर की प्रजा की रक्षा करने हेतु सीमाओं पर विशेष सुरक्षा व्यवस्था की थी, अलबरूनी हमें बताता है-’कश्मीर के लोग अपने देश की वास्तविक शक्ति के विषय में विशेष रूप से उत्कंठित रहते हैं। इसलिए वे कश्मीर के प्रवेश द्वार और उसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। फलस्वरूप उनके साथ कोई वाणिज्य व्यापार कर पाना बहुत कठिन है।….इस समय तो वे किसी अनजाने हिंदू को भी प्रवेश नही करने देते हैं। दूसरे लोगों की तो बात ही छोड़िए।’ सन 1015 में महमूद गजनवी कश्मीर पर पहला आक्रमण करता है। उसकी सेनाएं तौसी नामक मैदान में आ डटीं। महाराजा संग्राम राज की सुरक्षा व्यवस्था उच्चतम मानकों की थी। अत: महाराजा को तुरंत उक्त आक्रमण की सूचना मिल गयी। इसलिए राजा ने सफल कूटिनीति और युद्घ नीति का अनुकरण करते हुए अपने बौद्घिक विवेक और यौद्घिक संचालन का परिचय दिया। राजा ने काबुल के राजा त्रिलोचनपाल को युद्घ में सहायता के लिए आमंत्रित किया। राजा त्रिलोचन पाल ने योजना के अंतर्गत तौसी की ओर बढ़न आरंभ किया। युद्घ के मैदान में आगे की ओर से संग्रामराज की सेना आयी तो गजनवी की सेना के पृष्ठ भाग पर त्रिलोचनपाल की सेना ने पूर्व नियोजित योजना के अनुसार धावा बोल दिया।

महमूद की सेना पहाड़ों के बीच दोनों ओर से भारतीय स्वतंत्रता प्रेमी सैनिकों से घिर चुकी थी। जितने भर भी छल, छदम षडयंत्र और घात प्रतिघातों को महमूद अब से पूर्व युद्घों में अपनाता रहा था, वो सब धरे के धरे रह गये। भागने के लिए घिरे हुए आक्रांता को रास्ता खोजने पर भी नही मिल रहा था। कश्मीर व काबुल का ऐसा समीकरण बैठा कि शत्रु को दिन में तारे दिखा दिये गये। कश्मीर का तौसी युद्घ क्षेत्र स्वतंत्रता संघर्ष और स्वाभिमान की रक्षा का साक्षी बना और हमारे सैनिकों ने हजारों शत्रुओं का वध कर युद्घक्षेत्र में शवों का ढेर लगा दिया। लोहकोट के दुर्ग पर महमूद का कब्जा था। संग्राम राज की सेना ने किले को व्यूह रचना को तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया। महमूद भारतीय सैनिकों को दुर्ग में प्रवेश करते देखकर अत्यंत भयभीत हो गया था। अत: वह एक सुरक्षित स्थान पर छिप गया। किसी प्रकार महमूद गजनवी अपनी प्राणरक्षा कर भागने में सफल हो सका। ‘कैम्ब्रिज हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ में इस युद्घ का बड़ा रोचक वर्णन किया गया है-

‘भारत में महमूद की यह पहली और बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गयी और उसका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। परंतु अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात यह सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्त व्यस्त स्थिति में गजनी तक पहुंच सकी।’

कश्मीर में मिली इस पराजय से महमूद को पता चल गया कि भारत अपने स्वाभिमान और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए कितना समर्पित है और किसी क्षेत्र विशेष पर नियंत्रण कर लेने मात्र से हिंदुस्तान की स्वाधीनता को नष्ट नही किया जा सकता। भारतवर्ष पर शासन करने के लिए एक नही अनेकों शक्तियों से टक्कर लेनी होगी।….और यह भी पता नही कि इन शक्तियों में से कौन सी शक्ति कितनी शक्तिमान हो? महमूद ने पहली बार भारत के विषय में गंभीरता से सोचा। वह अपमान और प्रतिशोध सम्मिश्रित भावों से व्याकुल था। इसलिए उसने एक बार पुन: भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। उसने प्रतिवर्ष भारत पर आक्रमण करने के अपने संकल्प को विस्मृत कर दिया और पूरे छह वर्ष पश्चात अर्थात 1021 में उसने कश्मीर पर  पुन: आक्रमण किया। प्रतिवर्ष आक्रमण करने वाले आक्रांता का कश्मीर पर आक्रमण करने का साहस छह वर्ष में लौटा। स्पष्ट है कि उसे तौसी का युद्घ क्षेत्र देर तक स्मरण रहा। 1021 ई. में भी महमूद ने लोहकोट पर ही पड़ाव डाला। त्रिलोचनपाल को जैसे ही महमूद के आक्रमण की भनक लगी, उसने उसे पुन: खदेड़ने का अभियान तुरंत आरंभ कर दिया। त्रिलोचनपाल की सहायतार्थ महाराजा संग्रामराज ने भी अपनी सेना भेज दी। महमूद को अपनी पिछली पराजय का स्मरण था। वह पिछले घावों को सहलाते सहलाते  भारत की कश्मीर में अपने पांवों को रख ही रहा था कि पुन: अप्रत्याशित मार पड़नी आरंभ हो गयी। उसे पिछला अनुभव भीतर तक सिहराने लगा। स्थिति इस बार भी वही बन गयी थी, पृष्ठ भाग और सामने दोनों ओर से उसे त्रिलोचनापाल और महाराजा संग्रामराज की स्वतंत्रता प्रेमी सेना ने घेर लिया था। वह जिस दीपक को बुझाने आया था भारत की स्वतंत्रता का यह दीपक और भी प्रचण्ड होता जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि यह दीपक अब महमूद के लिए ही भस्मासुर बनने वाला था। महमूद गजनवी को फिर  प्राण रक्षा के लिए कश्मीर से गजनी की ओर भगाना पड़ा और इस बार वह ऐसा भागा कि फिर कभी जीवन में कश्मीर की ओर पैर करके भी नही सोया। धन्य है त्रिलोचनपाल, धन्य हैं महाराजा संग्राम राज और धन्य है उनकी सेना के वीर सैनानी जिन्होंने अपनी स्वतंत्रता के प्रति अगाध निष्ठा का ऐसा परिचय विदेशी आक्रांता को दिया। भारत के इतिहास में इन सभी स्वतंत्रता सैनानियों का नाम सदा सम्मान से ही लिया जाएगा।

मुस्लिम इतिहासकार नजीम ने अपनी पुस्तक ‘महमूद ऑफ गजनवी’ में लिखा है:-महमूद गजनवी ने अपनी पिछली पराजय का प्रतिशोध लेने और अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करने हेतु 1021 ई. में कश्मीर पर पुराने मार्ग से ही पुन: आक्रमण किया। परंतु फिर लोह कोट के किले ने उसका रास्ता रोक लिया। एक मास की असफल किलेबंदी के पश्चात विनाश की संभावना से भयभीत होकर महमूद ने दुम-दबाकर भाग जाने में ही कुशलता समझी। इस पराजय से उसे कश्मीर राज्य की अजेय शक्ति का आभास हो गया और कश्मीर को हस्तगत करने का अपना उद्देश्य उसने सदा सर्वदा के लिए त्याग दिया।

तौसी:स्वतंत्रता का एक स्मारक

स्वतंत्रता के 1235 वर्षीय संघर्ष का स्मारक सचमुच तौसी का युद्घ क्षेत्र भी है। जिसे नमन किये बिना हजारों बलिदानियों का बलिदान व्यर्थ चला जाएगा। राजा त्रिलोचनपाल के साथ इतिहास ने अन्यास किया है। महमूद गजनवी के एक चाटुकार इतिहासकार पीर हसन ने राजा त्रिलोचन पाल की शौर्य-गाथा को अपनी ‘पराधीन लेखनी’ से कलंकित करने का प्रयास किया और हमें वही कलंकित लेखनी की कलंकित गाथा पढ़ाई गयी। पीर हसन लिखता है:-

‘संग्रामराज ने अपने भीतर मुकाबले की ताव न देखकर बहुत से तोहफे तहलीफ के साथ खुद को सुल्तान की मुलाजिमत में पहुंचाया। सुल्तान ने फरमाया तूने खुद को क्यों आजिज और जलील किया। राजा ने जवाब में कहा कि शरीफ  लोग मेहमान की खातिर तवाजह अपने लिए फकर और तरक्की का सबब समझते हैं। सुल्तान महमूद ने उसकी हुस्नबयानी से महफूल होकर उम्दा उम्दा पोशाकों से सरफराज  किया और खिराजशाही मुकर्रर करके कश्मीर की हुकूमत उसी के हवाले कर दी।’

महाराजा त्रिलोचनपाल के लिए पीर हसन का यह कथन कितना भ्रामक व मिथ्या हो सकता है, इसका पता हमें डा. रघुनाथ सिंह के इस कथन से चल जाता है-’पीर हसन का वर्णन एकांगी तथा महमूद गजनवी की महत्ता और कश्मीरियों की हीनता दिखाने का प्रयास मात्र है। किसी इतिहास में उक्त घटना का समर्थन नही मिलता। महमूद गजनवी ने कभी कश्मीर उपत्यका में प्रवेश नही किया। पीर हसन की बातें असत्य हैं। संग्रामराज को विश्व की दृष्टि में गिराने तथा गजनवी की महत्ता प्रमाणित करने केे लिए यह कथा घड़ दी गयी है कि महमूद कश्मीर में आया और संग्रामराज ने अपनी पताका झुका दी।’

बस, हर विदेशी शत्रु इतिहास लेखक का भारत के विषय में यही प्रयास रहा है कि इसके लोगों को और इसके महान सेनापतियों, राजा महाराजाओं को जितना हो सके उतना  पतित रूप में दिखाओ। जिससे कि इस देश के लोगों को अपने अतीत से घृणा हो जाए और वो ये मानने लगें कि भारत का इतिहास तो निरंतर अपमान और तिरस्कार की एक ऐसी गाथा है जिसने हमें हर क्षण और हर पग पर अपमानित और तिरस्कृत किया है। जबकि कल्हण हमारे मत का समर्थन करते हुए लिखता है कि -इस अवसर पर त्रिलोचनपाल ने मुस्लिम आक्रामकों से अंतिम बार पंजाब में सामना किया था। ज्ञात होता है कि महमूद झेलम से कश्मीर जाने वाली किसी उपत्यका में त्रिलोचनपाल से संघर्ष कर पीछे हट गया। कश्मीर के कुछ सीमांत राजाओं ने गजनवी की अधीनता स्वीकार की होगी। परंतु कश्मीर ने महमूद से लोहा लिया।  संग्रामराज ने महमूद के सम्मुख मस्तक नही झुकाया था।

वो अनूठे बलिदानी देशभक्त

सोमनाथ का मंदिर लूटा जा चुका था। देश के लोगों में इस मंदिर के लूटे जाने के पश्चात वेदना बार बार देशभक्त हृदयों में ज्वार भरने का कार्य कर रही थी। लोग किसी भी मूल्य पर महमूद से प्रतिशोध चाहते थे। क्योंकि उस क्रूर शासक ने हमारे धर्म और राष्ट्र दोनों को ही अपवित्र कर दिया था। इसलिए जब वह देश से निकलकर जा रहा था, तो हमारे कुछ लोगों ने योजना बनाई कि उसके सैन्य दल को कच्छ के रेगिस्तान में भ्रमित कर दिया जाए। हमारे  लोगों को अपने इस वीरता से भरे कृत्य के परिणाम का भली प्रकार ज्ञान था कि इस कृत्य से मृत्यु उनका गले का हार बनकर आएगी। परंतु देशभक्ति के ज्वार के समक्ष मृत्यु को तो बहुत छोटी सी बात माना जाता है। मानो, जीवन ने अर्द्घविराम लिया और नया जीवन पाकर फिर चल पड़ा। प्राचीन काल से ही भारत के हर देशभक्त ने युद्घ में इसी भावना से आत्मोत्सर्ग किया है। कृष्ण ने गीता में अर्जुन को बस ये ही तो समझाया है कि जिसे तू इन सबका काल मान रहा है वह काल नही है, अपितु जीवन के लिए मात्र अर्द्घविराम है। अत: इसी भावना से उस समय (1026 ई.) हमारे देशभक्त नागरिक भी भर गये थे। मुस्लिम लेखक मिन्हाज ने लिखा है-’रास्ता बताने वालों की मांग पर एक हिंदू सामने आया और  उसने रास्ता बताने का वचन दिया। जब कुछ देर तक इस्लामी सेना उसके पीछे चली और थमने का समय आया तो लोग पानी की तलाश में निकल पड़े। परंतु पानी का दूर दूर तक भी नामोनिशान नही था। सुल्तान ने रास्ता दिखाने वाले को अपने सामने हाजिर करने का हुक्म दिया और पूछा कि पानी कहां मिल सकता है? उसने जवाब दिया-’मैंने सारी उम्र अपने देवता सोमनाथ की सेवा में गुजारने का प्रण लिया है, और मैं तुझे तथा तेरी सेना को इस जलहीन रेगिस्तान में इसीलिए लाया हूं कि तुम सब एक घूंट पानी के लिए तरस- तरस कर मर जाओ।

सुल्तान ने (काफिर के मुंह से शब्द सुनकर) हुक्म दिया उस रास्ता बताने वाले का कत्ल कर दिया जाए।’

अगले ही क्षण कच्छ की भूमि की गोद में एक देशभक्त और धर्मभक्त भारतीय नागरिक का सिर मां भारती की सेवा के लिए हवा में तैरता हुआ धड़ाम से आ पड़ा। मां धन्य हो गयी, ऐसा लाल जनकार और एक मां प्रसन्न हो गयी ऐसे  लाल का सर अपनी गोद में पाकर। उस अनाम देशभक्त का नाम-धाम अभी ज्ञात नही है पर वह अनाम शूरवीर  भारतीय स्वातंत्रय समर का एक स्मारक अवश्य है।

….और वह ही क्यों? जब वह मां भारती की गोद में जा लेटा, तब रास्ता बताने के लिए दो अन्य आत्मघाती बने हिंदू सामने आए। मुहम्मद उफी की ‘जमी-उल-हिकायत’ से हमें ज्ञात होता है-’दो हिंदू सामने आये और उन्होंने रास्ता बताने के लिए अपनी सेवाएं प्रस्तावित कीं। वे तीन दिन तक रास्ता बताते रहे और उसे (महमूद गजनवी को) रेगिस्तान में ले गये। जहां पानी तो क्या घास तक भी नही थी।

सुल्तान ने पूछा कि यह कैसा रास्ता था जिस पर वह चल रहे थे और क्या आसमान में कोई बस्ती या बाशिंदे भी थे या नहीं? उन्हेांने तब उत्तर दिया कि वे मुखिया राज मुखिया राजा (जिस व्यक्ति ने शत्रु सेना को भ्रमित कर अपरिमित कष्ट पहुंचाने के लिए ऐसी योजना बनायी और उन आत्मघाती देशभक्तों को इस पवित्र कार्य के लिए नियुक्त किया था) के बताये रास्ते पर चल रहे हैं और वे निर्भीक होकर उसको भटकाने का काम कर रहे हैं। अब (महमूद) समुंदर तुम्हारे सामने है और हिंद की सेना तुम्हारे पीछे। हमने अपना काम पूर्ण किया। अब तुम जो चाहो सो करो। तुम्हारी फौज का कोई भी आदमी अब बच नही पाएगा।’

ऐसे वीर प्रतापी शासक ऐसी अनूठी सेनाएं और ऐसे अदभुत देशभक्त नागरिकों के रहते भी यदि भारत को और हिंदू समाज को कायरों का समाज कहा जाता है तो ये केवल अपने गौरवपूर्ण अतीत को भली प्रकार न समझने का परिणाम है। वास्तव में ये वीर प्रतापी शासक, ये अनूठी सेनाएं और अदभुत देशभक्त नागरिक ही तो वो कारण थे जिनसे ‘हमारी हस्ती नही मिटी’ और हम अपनी स्वतंत्रता के लिए सदियों तक लड़ते रहे।

संभवत: यजुर्वेद (9-23) में यह व्यवस्था ऐसे राष्ट्र प्रेमी लोगों के लिए ही की गयी है-

वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिता: स्वाहा।

अर्थात हम अग्रसर होकर अपने राष्ट्र में जागृत रहें ऐसा, हम मानते हैं।

क्या यह स्वाभाविक प्रश्न नही है कि जिस देश का आदि धर्मग्रंथ राष्ट्र के प्रति ऐसी  उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं और कामनाओं से ओतप्रोत  हो उस देश के नागरिक इस प्रकार की उदात्त राष्ट्रीय भावनाओं से क्यों कर अछूते रह  सकते हैं?

हमारी मातृभूमि मां है और मां के मर्मस्थल को आहत करना कोई भी मातृभक्त नही चाहता। उसी प्रकार का प्यारा और पवित्र संबंध हमने अपनी मातृभूमि के प्रति प्राचीन काल से ही स्थापित किया है। अत: मां के मर्म स्थल को और हृदय को चोट न पहुंचाने के लिए हमें वेद ने यों आदेशित किया है-

मा तो मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमार्पियम्।  (अथर्व 12-1-35) अर्थात हे मातृभूमि हम तेरे हृदय और मर्मस्थल को चोट न पहुंचावें।

राष्ट्रप्रेम की ऐसी उत्तुंग भावना और माता पुत्र का ऐसा पवित्र संबंध विश्व में केवल और केवल भारतीय  संस्कृति में ही है, अर्थात वैदिक संस्कृति में। यदि अन्यत्र कहीं ये संबंध है भी तो वह इतनी आत्मीयता का नही है क्योंकि वह भारतीय संस्कृति की अनुकृति मात्र है। परछाई है, वास्तविकता नही है। अनुकृति और परछाई में भ्रांति हो सकती है, परंतु वास्तविकता में नही हो सकती। इसलिए अपने विषय में हम इस आत्मघाती सोच से बाहर निकलें कि इस देश में राष्ट्र, राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता का या देश और देशभक्ति का सर्वथा अभाव रहा हो।हम जीवन्तता के उपासक रहे हैं, हम जिज्ञासु रहे हैं, हम जिजीविषा के भक्त रहे हैं, और ये तीनों बातें वहीं मिलती हैं-जहां  लक्ष्य के प्रति समर्पण होता है, जहां समूह के प्रति, राष्ट्र और समाज के प्रति व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को समझता है, और उन्हीं के लिए जीवन को जीता है। भारत ने इन्हीं के लिए जीवन जीना सिखाया है, इसलिए भारत की हर मान्यता और उसकी संस्कृति का हर मूल्य अविस्मरणीय है, पूज्यनीय है और वंदनीय है।

Godse saved India from Gandhi terrorist

पिछले 67 सालों से इस देश में गांधी को 
सबसे बड़ा महात्मा और गोडसे को
सबसे बड़ा आतंकवादी बताया जाता है .......
लेकिन मित्रो क्या आपने कभी सोचा....
कि आखिर क्या थी गोडसे की विवशता ..????
क्या गोडसे नही जानते थे की 
एक आम आदमी को मारने में और एक
राष्ट्रपिता बने को मारने में क्या अंतर है ..?????? और 
क्या गोडसे को अंदाजा नहीं था कि गांधी को 
मारने के बाद क्या होगा उनके परिवार का ..?????
कैसे कैसे कष्ट सहने पड़ेंगे गोडसे के परिवार और 
सम्बन्धियों को और मित्रों को ..????
आखिर क्या था गांधी वध का वास्तविक कारण ..???
क्या थी विभाजन की पीड़ा ..?????
विभाजन के समय क्या क्या हुआ था ..????

आज मीडिया और सेकुलर गिरोह कहता है कि 
"गोडसे आतन्कवादी हैं"... "हत्यारा हैं' ....
परन्तु गोडसे का तो कभी निर्दोष लोगों को 
मारने का पूर्व में कोई रिकॉर्ड नहीं था
न ही गांधी को मारते समय गोडसे ने उनके साथ उपस्थित
लोगों को मारा था .......
तो गोडसे को आतन्कवादी और हत्यारा कैसे कहा
जा सकता हैं .????
.
हत्यारा तो इस गांधी को कहना चाहिए 
क्योंकि जिस गांधी की वजह से लाखों हत्याएँ और 
देश का भयंकर नुकसान हुआ .......
.
यदि गांधी थोड़े दिन और ज़िंदा रह जाता 
तो भारत का नक्शा कुछ ऐसे होना था .....
East पाकिस्तान(आज का बंगलादेश)से पाकिस्तान तक 
चौड़ी सड़क की planning चल रही थी ......
मगर भारत माँ का सीना कटने से बचाया 
भारत माँ के सच्चे सुपुत्र नथु राम गोडसे जी ने 
जिन्होंने गांधी का वध कर देश को बचाया .....
.
उस समय जो हालात थे और गांधी मुस्लिम तुष्टीकरण की खातिर एक के बाद एक भारत को और हिन्दुओं को 
जख्म दिये जा रहा था
यदि गोडसे की जगह कोई भी सच्चा राष्ट्रभक्त होता
तो गांधी को बहुत पहले ही मार देता ......
.
गांधी भक्तों और सेकुलर गिरोह को खुली चुनौती हैं
गांधी वध के बाद हुई अदालती कार्रवाई की बहस और हुतात्मा गोडसे के बयानों व सभी पक्षों को सार्वजनिक करके 
मीडिया में इस पर खुलकर बहस करायी जाए ......
मेरा दावा है दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा...
परन्तु नहीं ......

गांधी ब्रांड को स्थापित करने वाला वामपंथी गिरोह
कभी सच को बाहर नहीं आने देगा ......
क्योंकि ब्रह्मचर्य प्रयोग के नाम पर कुकर्म करने वाले 
बापू की करतूतों का कच्चा चिट्ठा जब खुलेगा 
तो इस गांधी ब्रांड की धज्जियां उड जायेगी ........ और 
एक बार जब बात निकली तो बहुत दूर तक जायेगी ......
#राष्ट्रहित_में_शेयर_करे...........>>>>>>>>>>

Thursday, January 28, 2016

Real Quran was burned by 3rd Caliph

Nancy Papadopoulos's photo.Real Quran is burned.
Muhammad repeatedly calls attention to the fact that the Qur'an is not written, like other sacred books, in a strange language, but in Arabic, and therefore is intelligible to all. At that time, along with foreign ideas, many foreign words had crept into the language, especially Aramaic terms for religious conceptions of Jewish and Christian origin. Some of these had already passed into general use, while others were confined to a more limited circle. Muhammad, who could not ...
Jeremy Stevens's photo.Ron Klein's photo.fully express his new ideas in the common language of his countrymen, but had frequently to find out new terms for himself, made free use of such Jewish and Christian words, as was done, though perhaps to a smaller extent, by certain thinkers and poets of that age who had more or less risen above the level of heathenism. In Muhammad's case this is the less wonderful, because he was indebted to the instruction of Jews and Christians whose Arabic - as the Qur'an pretty clearly intimates with regard to one of them - was very defective.




● "And if he (Muhammad) had forged a (((false saying))) concerning Us, We surely should have seized him by his right hand, and then certainly should have cut off his Aorta and none of you {Muslims} could withhold Us from punishing him." (Qur'an 69:44-47)
● "The Prophet in his ailment in which he died, used to say: "O 'Aisha! I still feel the pain caused by the food I ate at Khaibar, and at this time, I feel as if my Aorta is being cut from that poison." (Sahih Bukhari... 5:59:713)
● "Therefore thus saith the Lord of hosts concerning the [false] prophets: Behold, I will feed them with wormwood [something bitter, or extremely unpleasant], and make them drink the water of gall [drink poisonous water]." (Jeremiah 23:15)
● "But the [false] prophet, which shall presume to speak a word in My name, which I have not commanded him to speak, or that shall speak in the name of other gods [Allah], even that prophet shall die." (Deuteronomy 18:20)
● "I have fabricated things against God and have imputed to Him words which He has not spoken.” — [False] Prophet Muhammad (Al-Tabari
6:111)
 "Allah's Messenger said: There is none amongst you {Muslims} with whom is not an attaché from amongst the → jinn (devil). They (the Companions) said: Allah's Messenger, with you too? Thereupon he said: → Yes." (Sahih Muslim 39:6757)
● "O Muhammad! I think that → your Satan ← has forsaken you, for I have not seen him with you for two or three nights!" (Sahih Bukhari 6:60:475)
● "There came to me an inviter on behalf of the → Jinn and I went along with him and recited to them {Muslims} the Qur'an." (Sahih Muslim 4:903)
● "And remember when We said to the angels: "Prostrate to Adam." So they prostrated except Iblis (Satan). He was one of the → Jinns." (Qur'an 18:50)
● "The Prophet [Muhammad] said: Verily, Satan flows through the human being {Muslims} like blood.” (Sahih Muslim 2174)












Tuesday, January 26, 2016

TEJAS,Indian fighter plane is in Bahrain Air show


India has entered in a mega private venture by allowing TATA ans Reliance in military field.
India’s Reliance Defense announced that it has entered into a manufacturing and maintenance partnership with Russian Almaz-Antey, manufacturer of the S-400 air defense missile system.
The agreement will focus on radars and automated control systems as areas of partnership for the air defense missile systems, S-400 as well as offset policies of the Indian Ministry of Defense, Reliance said in a statement Thursday.
“Working with Reliance Defence will help us develop new directions for both Companies to address future requirements of the Indian Armed Forces," Vice-Chairman of AlmazAntey V F Medovnikov said.
Reliance Defence Ltd. is a wholly owned subsidiary of Reliance Infrastructure Limited.
Under India’s offsets policy, foreign defense contractors are required to invest a percentage of the value of any deal in India to build an industrial base to reduce defense imports.

defenseworld

Monday, January 25, 2016

WHO GAVE BHARATA ITS INDEPENDENCE FROM BRITISH RULE ?

WHO GAVE BHARATA ITS INDEPENDENCE FROM BRITISH RULE ?
Who freed India, Gandhi or Bose? New book claims Netaji's INA had more impact on British rulers than Gandhi or Nehru's non-violence.
While the declassification of the Netaji files has sparked a massive debate on the need to rewrite modern Indian history, a yet-to be-published book - Bose: An Indian Samurai - by Netaji scholar and military historian General GD Bakshi claims that former British prime minister Clement Atlee said the role played by Netaji’s Indian National Army was paramount in India being granted Independence, while the non-violent movement led by Gandhi was dismissed as having had minimal effect.
In the book, Bakshi cites a conversation between the then British PM By Rahul Kanwal in New Delhi Attlee and then Governor of West Bengal Justice PB Chakraborty.
The conversation is placed in 1956 when Attlee - the leader of Labour Party and the British premier who had signed the decision to grant Independence to India - had come to India and stayed in Kolkata as Chakraborty’s guest.
Letter
Chakraborty, who was then the Chief Justice of the Calcutta High Court and was serving as the acting Governor of West Bengal, had written a letter to the publisher of RC Majumdar’s book, A History of Bengal, in which he wrote: “When I was acting governor, Lord Attlee, who had given us Independence by withdrawing British rule from India, spent two days in the governor’s palace at Calcutta during his tour of India. At that time I had a prolonged discussion with him regarding the real factors that had led the British to quit India.”
british-pm-clement-attlee
Former British PM Clement Atlee had said that the role played by Netaji’s Indian National Army was significant in India becoming independent


Clement Atlee reportedly described Gandhi's influence on the British decision to leave India as "minimal".


“My direct question to Attlee was that since Gandhi’s Quit India Movement had tapered off quite some time ago and in 1947 no such new compelling situation had arisen that would necessitate a hasty British departure, why did they had to leave?”
“In his reply Attlee cited several reasons, the main among them being the erosion of loyalty to the British crown among the Indian Army and Navy personnel as a result of the military activities of Netaji,” Chakraborty said.
“Toward the end of our discussion I asked Attlee what was the extent of Gandhi’s influence upon the British decision to leave India. Hearing this question, Attlee’s lips became twisted in a sarcastic smile as he slowly chewed out the word, ‘m-i-n-i-m-a-l’,” Chakraborty added.
This startling conversation was first published by the Institute of Historical Review by author Ranjan Borra in 1982, in his piece on Subhas Chandra Bose, the Indian National Army and the war of India’s liberation.
To understand the significance of Attlee’s assertion, we have to go back in time to 1945. The Second World War had ended. The allied powers, led by Britain and the United States, had won. The Axis powers led by Hitler’s Germany had been vanquished. The victors wanted to impose justice on the defeated armies.
In India, officers of Netaji Bose’s Indian National Army were put on trial for treason, torture, murder. This series of court martials, came to be known as the Red Fort Trials.
Soldiers' mutiny
Indians serving in the British armed forces were inflamed by the Red Fort Trials. In February 1946, almost 20,000 sailors of the Royal Indian Navy serving on 78 ships mutinied against the Empire. They went around Mumbai with portraits of Netaji and forced the British to shout Jai Hind and other INA slogans.
The rebels brought down the Union Jack on their ships and refused to obey their British masters. This mutiny was followed by similar rebellions in the Royal Indian Air Force and also in the British Indian Army units in Jabalpur. The British were terrified.
After the Second World War, 2.5 million Indian soldiers were being de-commissioned from the British Army. Military intelligence reports in 1946 indicated that the Indian soldiers were inflamed and could not be relied upon to obey their British officers.
There were only 40,000 British troops in India at the time. Most were eager to go home and in no mood to fight the 2.5 million battle-hardened Indian soldiers who were being demobilised.
It is under these circumstances that the British decided to grant Independence to India. The idea behind putting these documents in the public domain, is not to in any way undermine the significant contribution of Mahatma Gandhi or Pandit Nehru, but to spark a debate about the real significance of the role played by Netaji’s Indian National Army.
School textbooks are dominated by the role played by the non-violent movement, while the role of the INA is dismissed in a few cursory paragraphs.
The time has come to revisit modern Indian history and acknowledge the immense contribution of Netaji in helping India win its freedom.
http://www.dailymail.co.uk/indiahome/indianews/article-3416178/Who-freed-India-Gandhi-Bose-New-book-claims-Netaji-s-INA-impact-British-rulers-Gandhi-Nehru-s-non-violence.html
dimensiontoday 

Quran and terrorism

आज लाखो मुस्लिम सडक पर उतर कर हिन्दू महासभा के कमलेश तिवारी जी को फांसी पर लटका देने के लिए सरकार के सामने सडको पर जुलुस निकाल रहे है क्योंकि जब आजम खान ने आरएसएस को "गे" कहा तो जवाब मे कमलेश जी ने कहा कि मुहम्मद वास्तव मे पहले होमो सेक्सुअल थे। बस बात भडक गयी।
लेकिन अब मेआपको बता दूँ कि कुरआन एक ऐसा मजहबी ग्रन्थ है जो पूरी दुनिया को सबसे ज्यादा मुर्ख बनाता है। इसमे अगर लिखा है कि मानव हत्या करना जिहाद है तो दूसरी तरफ लिखा है एक मानव हत्या पूरी मानवता की हत्या है।
कही पर जानव...रो की हत्या भी मना है तो उसी मे कही लिखा है पेट से निकाल कर भ्रूण जानवर की हत्या भी जायज है।
अगर कही लिखा है होमो इंसान को सजाए मौत दी जानी चाहिए तो दूसरी तरफ उसी होमो सेक्सुअल आदमी को जन्नत मे सेक्स और सेवा के लिए देने की बात भी है।
अब जो मायावती लालू कांग्रेस को वोट देने वाले मूर्खों की जमात है वो इन सब ने उलझ कर रह जाते हैं। क्योंकि मुस्लमान मुर्ख बनाने केलिए क्या करता है वह देखिये...
अगर मुस्लिम का कहीं पर वर्चस्व नही है और हिन्दू या ईसाई के सामने कमजोर है या खुद को बचाने के लिए कहेगा कि ..
"इस्लाम में एक मानव की हत्या भी पूरी मानवता की हत्या है.. ये लिखा है"
जब मुस्लिम ताकतवर रहेंगे तो कहेंगे ..

 "गैर मुस्लिमों की हत्या करना जिहाद याने अल्लाह का कार्य है"
हिन्दू भी सेक्युलर है तो अच्छे लगने वाले परिभाषा को सुन कर विश्वास करता है दूसरे को सुनता ही नही।
कुरान मे जन्नत मे होमो भी रहेंगे सेवा के लिए ऐसा वर्णन है - "और उनके चारो तरफ लडके घूम रहे होंगे, वह ऐसे सुन्दर है,जैसे छुपे हुए मोती हो "सूरा -अत तूर 52 :24
इन लडको की हकीकत कुरान की इस आयत से पता चलती है, जो कहती है कि, "ऐसे पुरुष जो औरतो के लिए अशक्त हो (who lack vigour ) सूरा -नूर 24 :३१ बोलचाल की भाषा मे हम ऐसे पुरुषो नपुंसक या हिजडा (Eunuchs ) कहते है, आज भी ये प्रथा अफगानिस्तान, पाकिस्तान, अरब मे मौजूद हैजिसे "बच्चा बाजी " कहा जाता है, इसी तरह भारत मे हिजडा बनाने कि प्रथा भी मुस्लिम शासक ही लाये थे जिनको "मुखन्निस(Arabic مخنثون "effeminate ones") कहते है। यह ऐसे लडके या पुरुष होते है, जिनका पुरुषांग काट दियाजाता ताकि वह स्त्री जैसे दिखे, और जब वह हरम मे काम करे तो वहां की औरतो से कोई शारीरिक सम्बन्ध नही बना सकें परन्तु इनका मालिक इनसे समलैंगिक सम्बन्ध बना सके।
छोटे छोटे लडको या तो खरीद कर या अगवा करके उठाव लिया जाता है। फिर उनको लडकियो के कपडे पहिना कर नाच कराया जाता है और नाच के बाद उनके साथ कुकर्म किया जाता है, कभी कभी ऐसे लडको को खस्सी करके (Castrated ) हिजडा बना दिया जाता है। यह परम्परा अफगानिस्तान, सरहदी पाकिस्तान मे अधिक है। इस कुकर्म के लिए 9 से 14 साल के लडको को लिया जाता है। अफगानिस्तान मे गरीबी और अशिक्षा अधिक होने के कारण वहां बच्चाबाजी एक जायज मनोरंजन है ।
इसका विकिपेडिया लिंक https://en.m.wikipedia.org/wiki/Bacha_Bazi
अल उद्दीन का सेनापति “मालिक काफूर ” हिजडा था, और कुतुबुद्दीन का सेनापति “खुसरू खान ” भी हिजडा ही था महमूद गजनवी और उसके हिजडे गुलाम के “गिलमा बाजी” (homo sexual ) प्रेम यानि कुकर्म (Sodomy ) को इकबाल जैसे शायर ने भी आदर्श बताया है क्योंकि यह कुरान और इस्लाम के अनुकूल है। इसलिए मे कमलेश तिवारी जी का सच्चाई के आधार पर पूरी तरह समर्थन करता हूँ। मुसलमानो की बात का तो ऐसा है की अपने हिसाब से कोई भी सूरा या आयत निकाल कर पटक देते हैं।
https://www.facebook.com/photo.php?fbid=150084062030648&set=a.116071312098590.1073741828.100010871649924&type=3&theater

Rangeela Rasool

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Hindi Rangeela Rasool
1 -अल्लाह का नाम लिए बिना जानवर को मारना हराम है . लेकिन जिहाद के नाम से हजारों इंसानों का क़त्ल करना हलाल है .
2-यहूदियों ,ईसाइयों से दोस्ती करना हराम है . लेकिन यहूदियों ,ईसाईयों का क़त्ल करना हलाल है .
3-टी वी और सिनेमा देखना हराम है . लेकिन सार्वजनिक रूप से औरतों को पत्थर मार हत्या करते हुए देखना हलाल है .
...
4-किसी औरत को बेपर्दा देखना हराम है . लेकिन किसी गुलाम औरत को बेचते समय नंगा करके देखना हलाल है .
5-शराब का धंदा करना हराम है . लेकिन औरतों ,बच्चों को गुलाम बना कर बेचने का धंदा हलाल है .
6-संगीत सुनना हराम है . लेकिन जिहाद के कारण मारे गए निर्दोष लोगों के घर वालों की चीख पुकार सुनना हलाल है .
7-घोड़ों की दौड़ पर दाव लगाना हराम है . लेकिन काफिरों के घोड़े चुरा कर बेचना हलाल है
8-औरतों को एक से अधिक पति रखना हराम है . लेकिन मर्दों लिए एक से अधिक पत्नियाँ रखना हलाल है .
9-चार से अधिक औरतें रखना हराम है . लेकिन अपने हरम में सैकड़ों रखेंलें रखना हलाल है .
10किसी मुस्लिम का दिल दुखाना हराम है . लेकिन किसी गैर मुस्लिम सर कटना हलाल है .
11-औरतों के साथ व्यभिचार करना हराम है . लेकिन जिहाद में पकड़ी गयी औरतों के साथ सामूहिक बलात्कार करना हलाल है .
12-जब किसी औरत की पत्थर मार कर हत्या की जारही हो,तो उसे बचाना हराम है . जब उसी अपराध के लिए औरत को जिन्दा जलाया जा रहा हो,तमाशा देखना हलाल है .
इन थोड़े से मुद्दों को ध्यान से पढ़ने से उन लोगों की आँखें खुल जाना चाहिए तो इस्लाम को शांति का धर्म समझ बैठे ह

सारागढ़ी महान लड़ाई..UNESCO ने .8 महानतम लड़ाइयोँ मेँ शामिल किया

अगर आप को इसके बारे नहीं पता तो आप अपने इतिहास से बेखबर है।
आपने "ग्रीक सपार्टा" और "परसियन" की लड़ाई के बारे मेँ सुना होगा ......
इनके ऊपर "300" जैसी फिल्म भी बनी है ....
.
पर अगर आप "सारागढ़ी" के बारे मेँ पढोगे तो पता चलेगा इससे महान लड़ाई...
सिखलैँड मेँ हुई थी ...... बात 1897 की है .....
नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर स्टेट मेँ 12 हजार अफगानोँ ने हमला कर दिया ......
वे गुलिस्तान और लोखार्ट के किलोँ पर कब्जा करना चाहते थे ....
.
इन किलोँ को महाराजा रणजीत सिँघ ने बनवाया था ..... इन किलोँ के पास सारागढी मेँ एक सुरक्षा चौकी थी .......
जंहा पर 36 वीँ सिख रेजिमेँट के 21 जवान तैनात थे .....
ये सभी जवान माझा क्षेत्र के थे और सभी सिख थे .....
36 वीँ सिख रेजिमेँट मेँ केवल साबत सूरत (जो केशधारी हों) सिख भर्ती किये जाते थे .......
ईशर सिँह के नेतृत्व मेँ तैनात इन 20 जवानोँ को पहले ही पता चल गया कि 12 हजार अफगानोँ से जिँदा बचना नामुमकिन है .......
फिर भी इन जवानोँ ने लड़ने का फैसला लिया और 12 सितम्बर 1897 को सिखलैँड की धरती पर एक ऐसी लड़ाई हुयी जो दुनिया की पांच महानतम लड़ाइयोँ मेँ शामिल हो गयी .....
एक तरफ 12 हजार अफगान थे .....
तो दूसरी तरफ 21 सिख .......

यंहा बड़ी भीषण लड़ाई हुयी और 600-1400 अफगान मारे गये और अफगानोँ की भारी तबाही हुयी .....
सिख जवान आखिरी सांस तक लड़े और इन किलोँ को बचा लिया ........
अफगानोँ की हार हुयी ..... जब ये खबर यूरोप पंहुची तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गयी ......ब्रिटेन की संसद मेँ सभी ने खड़ा होकर इन 21 वीरोँ की बहादुरी को सलाम किया ..... इन सभी को मरणोपरांत इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट दिया गया .......
जो आज के परमवीर चक्र के बराबर था ......
भारत के सैन्य इतिहास का ये युद्ध के दौरान सैनिकोँ द्वारा लिया गया सबसे विचित्र अंतिम फैसला था .....
.
UNESCO ने इस लड़ाई को अपनी 8 महानतम लड़ाइयोँ मेँ शामिल किया ......
इस लड़ाई के आगे स्पार्टन्स की बहादुरी फीकी पड़ गयी ...... पर मुझे दुख होता है कि जो बात हर भारतीय को पता होनी चाहिए ...... उसके बारे मेँ कम लोग ही जानते है .......ये लड़ाई यूरोप के स्कूलोँ मेँ पढाई जाती है पर हमारे यंहा जानते तक नहीँ

चित्तौड़गढ़ का तीसरा जौहर और जयमल-पत्ता का बलिदान,Akbar's Expedition Against Chittodgadh and the Third Jauhar

----चित्तौड़गढ़ का तीसरा जौहर और जयमल-पत्ता का बलिदान----
राजपूत विरूद्ध मुग़ल युद्ध 1568 ईस्वी
पुरखों के शौर्य,रक्त और बलिदान को भुलाये कैसे???
पुरखो के शाका और जौहर को हम इतनी आसानी से नही भूल सकते।राजपूत योद्धा अपनी प्रजा के रक्षा करना जानते थे ,जीते जी एक पर भी आंच नही आने दी,कट गए मर मिटे इज्जत की खातिर जौहर की चिता में लाखो राजपूतानिया जिन्दा जल गई,लाखो राजपूत योद्धा कट गए, सिर कट गए धड़ लड़ते रहे ।
वक़्त 15 वी शताब्दी दिल्ली के मुग़ल बादशाह ने मेवाड़ चित्तौड़ पर आक्रमण की योजना की और खुद 60000 मुगलो की सेना लेकर मेवाड़ आया।उस वक़्त महाराणा उदय सिंह भी लोहा लेने को तैयार हुए अपने पूर्वज बाप्पा रावल राणा हमीर राणा कुम्भा राणा सांगा के मेवाड़ी वंसज तैयार हुए पर मेवाड़ के तत्कालीन ठाकुरो/उमरावो ने उदय सिंह जी को मेवाड़ हित में कहा की आप न लडे क्यों की आपको कुंभलगढ़ में सेना मजबूत करनी है ।अंत ना मानने पर भी उमरावो ठाकुरो ने उन्हें कुंभलगढ़ भेज दिया और फैसला किया मेड़ता के दूदा जी पोते वीरो के वीर शिरोमणि जयमल मेड़तिया को चित्तोड़ का सेनापति बना भार सोपने का और जयमल के साले जी पत्ता जी चुण्डावत को उनके साथ नियुक्त किया गया।
खबर मिलते ही जयमल जी और उनके भाई बन्धु प्रताप सिंह और दूसरे भाई भतीजे राठौड वीरो की तीर्थ स्थली चित्तोड़ की और निकल पड़े ।निकलते ही अजमेर के आगे मगरा क्षेत्र में उनका सामना हुआ वहा बसने वही रावत जाति के लूटेरो से!!!!!
भारी लाव लश्कर और जनाना के साथ जयमल जी को लूटेरो ने रोक दिया एक लूटरे ने सिटी बजायी देखते ही देखते एक पेड़ तीरो से भर गया सभी समझ चुके थे की वे लूटेरो से घिरे हुए है ।
तभी भाई प्रताप सिंह ने कहा की "अठे या वटे" जयमल जी ने कहा "वटे" तभी जनाना आदि ने सारे गहने कीमति सामान वही छोड़ दिया और आगे चल पड़े लूटेरो की समझ से ये बाहर था कि एक राजपूत सेना जो तलवारो भालो से सुसज्जित है वो बिना किसी विवाद और लडे इतनी आसानी से कैसे छोड़ जा सकते है।अभी जयमल की सेना अपने इष्ट नाथद्वारा में श्रीनाथ जी के दर्शन ही कर रही थी कि तभी लूटेरे फिर आ धमके और सरदार ने जयमल जी से कहा की ये "अटे और वटे" क्या है ????
तब वीर जयमल मेड़तिया ने कहा की यहाँ तुमसे धन के लिए लडे या वहा चित्तौड़ में तुर्को से ?
तभी लूटेरे सरदार की आँखों में आंसू आ गए और उसने जयमल जी के पैेरो में गिर कर माफ़ी मांगी और अपनों टुकड़ी को शामिल करने की बात कही पर जयमल जी ने कहा की तुम लूटपाठ छोड़ यहाँ मुगलो का सामना करो।अतः लूटेरे आधे रास्ते वीरो को छोड़ने आये और फिर लोट गए।
मेड़ता के वीर अब चित्तोड़ में प्रवेश कर गए और किले की प्रजा को सुरक्षित निकालने में जुटे ही थे कि तभी खबर मिली की मुग़ल सेना ने 10 किमी दूर किले के नीचे डेरा जमा दिया है। सभी 9 दरवाजे बंद किये गए 8000 राजपूत वीर वही किले में रहे।
मुगलो ने किले पर आक्रमण किया पर हर बार वो असफल हुये आखिर में मुगलो ने किले की दीवारो के निचे सुरंगे बनाई पर रात में राजपूत फिर उसे भर देते थे ।आखिर में किले के दरवाजो के पास दीवारे तोड़ी पर योद्धा उसे रात में फिर बना देते थे।ये जद्दोजहद 5 माह तक चलती रही पर किले के निचे मुगलो की लाशे बिछती गई।उस वक़्त मजदूरी इंतनी महगी हो गयी की एक बाल्टी मिट्टी लाने पर एक मुग़ल सैनिक को एक सोने का सिक्का दिया गया।वहाँ मिटटी सोने से अधिक महंगी हो गयी थी।
अब अकबर ने जयमल जी के पास अपना दूत भेजकर प्रलोभन दिया कि अगर मेरे अधीनता स्वीकार करे तो जयमल को उसके पुरखों का राज्य मेड़ता सहित पूरे मेवाड़ का भी राजा बना देगा।तब वीरवर सूर्यवंशी राजपूत गौरव राव जयमल राठौड़ मेड़तिया का उत्तर था-------
है गढ़ म्हारो म्है धणी,असुर फ़िर किम आण |
कुंच्यां जे चित्रकोट री दिधी मोहिं दीवाण ||
जयमल लिखे जबाब यूँ सुनिए अकबर शाह |
आण फिरै गढ़ उपरा पडियो धड पातशाह ||
अर्थात अकबर ने कहा जयमल मेड़तिया तू अपने प्राण चित्तोड और महाराणा के लिए क्यों लूटा रहा है ?
तू मेरा कब्ज़ा होने दे में तुझे तेरा मूल प्रदेश मेड़ता और मेवाड़ दोनों का राजा बना दूंगा ।
पर जयमल ने इस बात को नकार कर उत्तर दिया मै अपने स्वामी के साथ विश्वासघात नही कर सकता।
मेरे जीते जी तू अकबर तुर्क यहाँ प्रवेश नही कर सकता मुझे महाराणा यहाँ का सेनापति बनाकर गए है।
एक हरियाणवी रागिनी गायक ने भी जयमल के बारे में क्या खूब लिखा है कि जब अकबर के संधि प्रस्ताव को जयमल ठुकराकर अकबर को उसी के दूत के हाथों सन्देश भिजवाता है कि---
ए अकबर
"हम क्षत्री जात के ठाकुर, समझे न इंसाण तनै"
"रे तै हिजड़ा के गीत सुणे सै,देखे न बलवान तैने"।।
अब अकबर घबरा गया और उसने अजमेर शरीफ से दुवा मांगी कि अगर वो इस युद्ध में कामयाब हो गया तो वो अजमेर जियारत के लिए जरुर जाएगा।।।।।।।।।।।।।
एक दिन रात में जयमल जी किले की दिवार ठीक करवा रहे थे और अकबर की नजर उन पर पड़ गयी।तभी अकबर ने अपनी बन्दुक संग्राम से एक गोली चलाई जो जयमल के पैरो पर आ लगी और वो घायल हो गए।गोली का जहर शरीर में फैलने लगा।अब राजपूतो ने कोई चारा न देखकर जौहर और शाका का निर्णय लिया।
आखिर वो दिन आ ही गया 6 माह तक किले को मुग़ल भेद नही पाये और रसद सामग्री खाना आदि खतम हो चुकी था ।किले में आखिर में एक ऐसा निर्णय हुआ जिसका अंदाजा किसी को नही था और वो निर्णय था जौहर और शाका का और दिन था 23 फरवरी 1568!!!!!
चित्तौड़ किले में कुण्ड को साफ़ करवाया गया गंगाजल से पवित्र किया गया ।बाद में चन्दन की लकड़ी और नारियल से उसमे अग्नि लगायी गयी उसके बाद जो हुआ वो अपने आप में एक इतिहास था।
हजारों राजपूतानिया अपने अपनी पति के पाव छूकर और अंतिम दर्शन कर एक एक कर इज्जत कि खातिर आग में कूद पड़ी और सतीत्व को प्राप्त हो गयी ये जौहर नाम से जाना गया।
रात भर 8000 राजपूत योद्धा वहा बैठे रहे और सुबह होने का इन्तजार करने लगे ।सुबह के पहले पहर में सभी ने अग्नि की राख़ का तिलक किया और देवी पूजा के बाद सफ़ेद कुर्ते पजामे और कमर पर नारियल बांध तैयार हुए।
अब जौहर के बाद ये सभी भूखे शेर बन गए थे।
मुग़ल सेना चित्तोड किले में हलचल से पहले ही सकते में थी।उन्होंने रात में ही किले से अग्नि जलती देखकर समझ आ गया था कि जौहर चल रहा है और कल अंतिम युद्ध होगा।
सुबह होते ही एकाएक किले के दरवाजे खोले गए। जयमल जी के पाँव में चोट लगने की वजह से वो घोड़े पर बैठने में असमर्थ थे तो वो वीर कल्ला जी राठौड़ के कंधे पर बेठे।
युद्ध शुरू होते ही वीर योद्धाओ ने कत्ले आम मचा दिया अकबर दूर से ही सब देख रहा था।जयमल जी और कल्ला जी ने तलवारो का जोहर दिखाया और 2 पाव 4 हाथो से मारकाट करते गये उन्हें देख मुग़ल भागने लगी।
स्वयम अकबर भी यह दृश्य देखकर अपनी सुध बुध खो बैठा। उसने चतुर्भुज भगवांन का सुन रखा था।
"जयमल बड़ता जीवणे, पत्तो बाएं पास |
हिंदू चढिया हथियाँ चढियो जस आकास" ||
पत्ता जी प्रताप सिंह जी जयमल जी कल्ला जी आदि वीरो के हाथो भयंकर मार काट हुयी ।
सिर कटे धड़ लड़ते रहे ।
"सिर कटे धड़ लड़े रखा रजपूती शान "
दो दो मेला नित भरे, पूजे दो दो थोर॥
जयमल जी के एक वार से 2 - 2 मुग़ल तुर्क साथ कटते गए किले के पास बहने वाली गम्भीरी नदी भी लाल हो गयी। सिमित संसाधन होने के बाद भी राजपूती सेना मुगलो पर भारी पढ़ी।
युद्ध समाप्त हुआ कुल 48000 सैनिक मारे गए जिनमे से पुरे 8000 राजपूत वीरगति को गए तो बदले में 40000 मुग़लो को भी साथ ले गए ।
बचे तो सिर्फ अकबर के साथ 20000 मुग़ल बाद में अकबर किल्ले में गया वहा कुछ न मिला। तभी अकबर ने चित्तौड़ की शक्ति कुचलने के लिये वहाँ कत्लेआम का आदेश दिया और 30 हजार आम जनता को क्रूरता से मारा गया।यह कत्लेआम अकबर पर बहुत बड़ा धब्बा है।
अकबर जयमल जी और पत्ता जी की वीरता से प्रभावित हुआ और नरसंहार का कलंक धोने के लिये उसने उनकी अश्ववारुड मुर्तिया आगरा के किले के मुख द्वार पर लगवायी।
वही कल्ला जी घर घर लोकदेवता के रूप में पूजे गए मेवाड़ महाराणा से वीरता के बदले वीर जयमल मेड़तिया के वंशजो को बदनोर का ठिकाना मिला तो पत्ता जी चुण्डावत के वंशज को आमेट ठिकाना ।
वही प्रताप सिंह मेड़तिया के वंशज को घाणेराव ठिकाना दिया गया।
ये वही जयमल मेड़तिया है जिन्हीने एक ही झटके में हाथी की सिर काट दिया था
ये वही वीर जयमल जी है वो महाराणा प्रताप के सैनिक(अस्त्र शस्त्र) गुरु भी थे।
ये वही वीर है जो स्वामिभक्ति को अपनी जान से ज्यादा चाहा अकबर द्वारा मेवाड़ के राजा बनाए जाने के लालच पर भी नही झुके।
कर्नल जेम्स टोड राजस्थान के प्रत्येक राज्य में "थर्मोपल्ली" जैसे युद्ध और "लियोनिडास" जैसे योधा होनी की बात स्वीकार करते हैं ये जयमल पत्ता जैता कुंपा गोरा बादल जैसे सैंकड़ो वीरो के कारण है।
हिंदू,मुस्लमान,अंग्रेज,फ्रांसिस,जर्मन,पुर्तगाली आदि अनेक इतिहासकारों ने जयमल के अनुपम शौर्य का वर्णन किया है |
अबुल फजल,हर्बर्ट,सर टामस रो, के पादरी तथा बर्नियर जैसे प्रसिद्ध लेखकों ने जयमल के कृतित्व की अत्यन्त ही प्रसंशा की है |
जर्मन विद्वान काउंटनोआर ने अकबर पर जो पुस्तक लिखी उसमे जयमल को "Lion of Chittor" कहा |
नमन है ऐसे वीरो को।।।
refrence---
१-https://en.wikipedia.org/wiki/Chittorgarh
2-http://www.historynet.com/battle-for-chitor-storming-the-la
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THIS ENGLISH ARTICLE WRITTEN BY KUNVAR VISHWAJEET SINGH SISODIYA JI,
===Akbar's Expedition Against Chittodgadh and the Third Jauhar And Saka===
Date:-23 October 1567 - 23 February 1568
Casualties:-
1)Attacking Army:-29,336 to 39,500(Based On Several Estimates and Calculations)
2)Defending Army:-8000 Rajputs Warriors and ~30000 Civilians
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In October 1567, the Mughal forces of approximately 5,000 men led by Akbar surrounded and besieged 8,000 Hindu Rajputs in Chittorgarh Fort and within a few months Akbar's ranks expanded to over 70,000 men and possibly more than 80,000 troops during the late phases of the siege, which ended in a victory of the Mughals and the dreadful Jauhar and Saka at the defending side followed by massacre of civilians.
Strength:-
1)Attacking Army:-
80,000 men
80 cannons
95 swivel guns
800 matchlocks
250 war elephants
2)Defending Army:-
8,000 men+1000 Pathan Gunners probably from Kalki or Buxar commanded by Pathan Ismail Khan.
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The Siege of Chittorgarh began when Akbar and his personal Mughal force of 5,000 soldiers surrounded a 6 mile territory around Chittorgarh Fort. On 23 October 1567, Akbar arrived and setup encampments he raised green flags of the Mughal Empire, according to Hindu accounts he also brought large Islamic banners and emblems (Islamic flags were commonly used by the Mughal army). His personal presence in the battlefield was a message for the Rajput flanks inside the fort that the siege was not a temporal affair. The next day Akbar unleashed his powerful cannons, but within a few days of the siege it was evident that his mortars needed higher elevation. Akbar then ordered his men to build the Mohur Margi (Mohur Hill, also known as: Coin Hill). Akbar also displayed heads of dead villagers to incite the Rajputs to come out.
After an arduous siege Akbar ordered his men to lift baskets of earth during both day and night, in order to create a hill right in front of the fort by which the Mughal cannons could be placed. When the hill was completed Akbar placed his cannons and mortars near its tip, but the cannons were too slow to breach the thick stone walls of the Fort.
Akbar believed that the only way to achieve victory and break the deadlock was to blow a hole underneath Chittorgarh Fort. Akbar then organized his sappers to build two sabat's and to plant two separate mines under the heavy stone walls of the fortress of Chittor. More than 5,000 Mughals then dug their way through a secret sabat(A tunnel like structured corridor covered by animal hide) that neared the gates of the fort, but one of the mines exploded prematurely during a military assault killing about a hundred Mughal sowars. The casualties on the Mughal side had risen to almost 200 men a day due to Rajput muskets and archers.
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Accompanied by his courtiers and surveyors, Akbar made a reconnaissance of his target and ordered batteries to be set up at various strategic points around the fort. It took about a month for the whole circumference of the fort to be invested.
There were three principal batteries, one of which was Akbar’s, located opposite the Lakhuta gate in the north. The second battery, under Shujaat Khan and other officers, and the third, under Asaf Khan and other officers, were emplaced at unspecified locations. Meanwhile, Akbar sent his officers to devastate the rana‘s territory, hoping to find Udai Singh in the process, but they found no trace of the rana.
The opening phase of battle began when some overzealous Mogul troops launched a reckless direct assault upon the fort. Not surprisingly, the Moguls’ arrows and bullets glanced off the surface of the walls and battlements, whereas those the garrison discharged exacted a heavy toll on them.
After that minor debacle, Akbar decided that strategic planning rather than reckless courage was what was needed if the fortress was to be taken. Accordingly, the emperor adopted a two-pronged strategy. One entailed mining the walls of the fort in front of the royal battery, whereupon a party of selected Mogul troops would rush into the fort as soon as the breach was made. While the sappers dug mines under the walls, stonemasons opened the way by removing obstacles with their iron tools.
The other strategy called for the construction of sabats, or covered passageways, an ingenious siege contrivance that was peculiar to India. A sabat was a sinuous sheltered passageway that was constructed out of gunshot range, with earthen walls on both sides and a roof of planks strongly fastened together and covered with rawhide. When a breach was made by mines, troops would rush in under the cover of the sabat. Akbar ordered the construction of two sabats: one to be commenced from the royal battery and the other to be built in front of Shujaat Khan’s position.
At the same time, in the emperor’s presence, an exceptionally large mortar was cast to demolish the walls of the fort. When the defenders became aware of this and saw that the Moguls were making daily progress toward the destruction of the fort, they sent out two representatives to Akbar to bargain for peace, offering to become subjects of his court and to send an annual tribute. Several Mogul officers advised him to accept the offer, but Akbar was adamant: Nothing short of the rana surrendering in person would persuade him to lift the siege. As they were unwilling–or perhaps unable–to deliver the rana, the Rajputs had no choice but to continue the defense of their fort with renewed fervor.
While the sabat in front of the royal battery was being constructed, artillerymen and marksmen inside the fort kept up such a fusillade that about 200 Mogul laborers were killed daily, even though they protected themselves with rawhide shields. The corpses were buried in the walls of the sabat. But the workers were kept going by lavish gifts of gold and silver coins from the emperor–the amount of which was calculated according to the number of containers of earth added to the sabat. The sabat opposite Akbar’s position was soon completed near the fort. It was reported to be so extensive that 10 horsemen abreast could ride along it and so high that an elephant rider with his spear in his hand could pass under it.
At the same time, two mines close to each other were brought to the wall of the fort and filled with large quantities of gunpowder. A party of fully armed and accoutered Mogul soldiers, noted for their bravery, stationed themselves near the wall, ready to rush in when it was breached. On December 17, the gunpowder of both mines was set to explode at the same time. One part of the bastion was blown up, inflicting heavy casualties on the defenders. Unknown to the Moguls, however, only one mine had exploded. When the soldiers rushed toward the large breach and
and were about to enter, the second mine exploded (apparently, the match used to ignite the gunpowder of the mine that exploded first had been shorter than the other match, so the mines failed to discharge simultaneously).
Moguls and Rajputs alike, battling in the breach, were hurled into the air together, while others were crushed by falling debris. The blast was so powerful that limbs and stones were hurled a great distance from the fort. Mogul reinforcements and Rajput troops then engaged in a brief skirmish until the Rajputs succeeded in quickly repairing the demolished part of the wall. About 500 Mogul soldiers, including a significant number of noteworthy men, were killed, while a large number of Rajputs also perished. On the same day, another ill-timed mine exploded in front of Asaf Khan’s battery and claimed 30 more lives.
Akbar viewed these botched undertakings as temporary setbacks that should serve to inspire even greater exertion and resolve on the part of the Moguls. To ensure that the assault on the fort would continue unabated, he ordered the construction of the sabat in front of Shujatt Khan’s battery to be speeded up.
The emperor also frequently visited the sabat in his sector and fired at the garrison from loopholes in the sabat. One day, Akbar saw that some of his men were admiring the marksmanship of one of the musketeers of the fort when, at that very moment, a shot from that marksman hit Jalal Khan, one of Akbar’s attendants. Akbar was reported to have said to his injured attendant, Jalal Khan, that marksman does not show himself; if he would do so, I’d avenge you. Although he could not see the marksman, Akbar took aim at the barrel of the musket that projected from a loophole. He fired but could not determine whether his shot had found its mark. It was only later that Akbar learned that his shot had indeed killed the sharpshooter, who was identified as Ismail, head of the musketeers.
Akbar proved to be quite a marksman himself, killing many noted members of the garrison. But the emperor also came close to losing his own life on a few occasions. Once, a large cannonball that fell near Akbar killed 20 soldiers but left him unscathed. On another occasion, a soldier standing near Akbar was hit by a bullet, and the emperor was saved from the same round only by his coat of mail.
When the second sabat was completed, the Mogul forces prepared to launch a full-scale assault on the fort. The Mogul troops went about their operations with such vigor and intensity that for two nights and a day they had neither food nor sleep, inspired by the personal example of Akbar, who was supervising the operations and keeping up a fusillade upon the garrison from the sabat. Special quarters had been erected for Akbar on top of the sabat, and the emperor stayed there during this crucial period.
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Abu Fazl's and Amarkavya Vanshawali Statement on the Blast of the mines using Gun Powder:-
"शब्दों महानेव बभूव पञ्च क्रोशाविधि(वधि)स्थाय¬ि जने: श्रुताश्व"(अमरकाव्य वंशावली,)
"50 kos,Pinjah Karva bestar rasid"
(Abu Fazl's Akbarnama(Persian Text,Vol II,Pg 400 and Pg 227)).
अमरकाव्य वंशावली limits the noise of the explosion to 5 kos whereas Fazl mentions 50 kos.
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As the Siege of Chittorgarh commenced a massive Mughal Army of nearly 60,000 gathered for battle and in this situation, Akbar had prayed for help for achieving victory and vowed to visit the tomb of the Sufi Khwaja at Ajmer if he was victorious. As the bombardment and the continuous assaults on Chittorgarh Fort continued, during one particular assault it is believed that a shot from Akbar's own matchlock wounded or killed the commander of the already demoralized Rajputs. It was only when almost all the Rajput women committed Jauhar (self immolation of women) did he Mughals realize that the condition inside the fort was now out of control and the total victory was within grasp.
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On the night of February 22, the Moguls attacked the fort from all sides and created several breaches in the walls. The Rajput warriors put up a stubborn resistance. At one point in the fighting, Prince Patta’s mother commanded Patta to don the saffron robe, which would indicate his desire to die for his gods and his country. She also armed his young bride with a lance and accompanied her down the rock. The defenders of Chitor saw mother and daughter-in-law die heroically, fighting side by side.
The Moguls had destroyed a large part of the wall at the end of the sabat that faced the royal battery. The defenders collected such combustible materials as muslin, wood, cotton and oil to fill the breach, intending to set fire to the heap when the Mogul troops approached to prevent them from entering the fort.
Akbar was in a vantage point inside a specially made gallery on top of the sabat at the time, and he saw a man wearing a chieftain’s cuirass directing the proceedings at the breach. The emperor took out a matchlock he had christened Sangram (Akbar was said to have killed a few thousand birds and animals with this gun during his hunting trips). He then fired at the Rajput chief, but no one could be certain whether the chieftain had been hit.
An hour had passed when Akbar received reports that the Rajputs had inexplicably abandoned their defenses. At about that time, fire broke out in several places in the fort. Akbar’s Hindu adviser, Raja Bhagwan Das, told the Mogul emperor that the Rajputs must be performing their custom of johar.
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=====Account Of Jauhar From Veer Vinod=====
"रावत पत्ता अपनी माँ सज्जन्बाई सोंनगरी और ठकुरानियो में से सामंतसी की बेटी जीवाबाई सोलंकिनी,सहसमल्ल की बेटी मदालसाबाई कच्छवाही ,इसरदास की बेटी भागवती बाई चहुवान,पद्मावती बाई झाली,रतनबाई राठोड,बालेसाबाई चहुवान,परमार डूंगरसी की बेटी बाग़डेची आसाबाई,वगैरह और दो बेटे व् पांच बेटियाँ आदि सबको आगमे जलाकर,तय्यार हो आया."(Veer Vinod,मोतीलाल बनारसीदास,chapter named 'बादशाह अकबर का चित्तोड़ लेना',Pg-80)
the jauhar were carried out at THREE different havelies: those of चुण्डावत पत्ता , साहिबखान चौहान, & ईसरदास चौहान ( may be also at जयमल्ल हवेली) led by Senior most thakurani of the haveli. Some are believed to have preferred जल समाधी । one estimate puts the figure at 300 more than that seem to be axeggaration.
Patta had 9 wives 5 daughters & 3 sons. His mother Sajjan bai Songari, wife Jivabai Solanki, & sister died on battle field fighting .
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The fortress of Chittor finally fell on February 1568 after a siege of four months when it was stormed by the Mughal forces. Akbar himself ordered two armored elephants" and 250 sowars to enter through two narrow breaches on the northern wall of the fort. Instead of surrendering to the Mughals the Rajputs chose to worship the sun one last time and fight to the death. This was common practise among the Rajputs also known as saka. Akbar then ordered the victorious Mughal forces to massacre the 30,000 civilian inhabitants of Chittorgarh Fort to compensate the soldiers killed in the war by the brave and talented Rajput soldiers.
Akbar then ordered the heads of his enemies to be displayed upon towers erected throughout the region, in order to demonstrate his authority and his victory over the Chittorgarh.(smith,2¬002,pg 342).
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Some Points to be noted
1)Akbar Shot Jaimal With his gun named "संग्राम."
2) The Ist Mughal War Elephant - Madhukar combats with Isar Das Chauhan:
A wonderful thing which happened that time, was that the Chauhan chief - Aissar Das Chauhan (or, Isar Das Chauhan) , who was one of the distinguished brave men of the fort, saw the elephant Madhukar and asked its name. When they told him he, in a moment, with daring rashness, seized his tusk with one hand, and struck with his dagger with the other and said, “Be good enough to convey my respects to your world-adorning appreciator of merit.”
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Abu'l Fazl describes a"wonderful thing" (as he says) - which was a daring attack by Isar Das Chauhan on one of the Mughal elephants Madhukar. Isar Das asked the name of the elephant before seizing its tusk with one hand and stabbing it with his dagger in the other hand. Isar Das then coolly asked the elephant's commander to convey his (Isar Das') 'wishes' to Akbar ("world adorning appreciator of merit"). It is interesting to observe that even Fazl was forced to admire some of the courageous acts of the Rajputs, which were beyond imagination.
}
The IInd Mughal War Elephant - Jangia:
The elephant Jangia displayed great deeds. One of them was that a Rajput ran and struck his trunk with his sword and cut it off. Though his trunk was severed, which makes life difficult, it made wonderful conflicts before it died. It had killed 30 distinguished men before it was wounded, and it slew 15 afterwards. The elephant Madhukar also displayed wonderful deeds.
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Here Fazl described one of Akbar's favorite Mughal elephants, "Jangia - the warrior", who killed 45 distinguished Rajputs before dying , despite its trunk being cut off by a sword!!
}
The IIIrd Mughal War Elephant - Kadira:
A wonderful thing was that the elephant Kadira ran away inside the fort on account of the noise and tumult, driving before it a number of doomed men who were coming to the breach. The lane was narrow, and it trampled and scattered them all. It was by the Divine aid that such a great boon was conferred. Aitamad Khan, who was riding on the elephant, was wounded, and died of his wounds a few days afterwards.
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Description of another Mughal war elephant named Kadira. In Arabic, Kadira means - "the powerful". This elephant was disturbed by the battle sounds and ran helter-skelter towards a narrow lane and trampled many of the Rajput soldiers who were going to repair a breach in the fort walls. Abu'l Fazl calls this rampage by the elephant a "divine aid" and a "great boon".
}
The IVth Mughal War Elephant - Sabdiliya:
The Shahinshah used to tell me that - " At this time, he was standing on the wall of the fort and contemplating the Divine aids. The elephant Sabdiliya came inside the fort and was engaged in casting down and killing the Rajputs.
A Rajput ran at him and struck it with his sword inflicting a slight wound. The elephant, however, did not regard it and seized him with its trunk.
Just then another Rajput came in front of him and Sabdiliya turned to him while the first man escaped from his grasp and again daringly attacked him, but Sabdiliya behaved magnificently."}
Description of another Mughal war elephant named Sabdiliya. This name means - the beautiful (perhaps the charming killer) , who was throwing away and killing the Rajputs. The incident mentioned here relates to the story of this elephant's fight with two Rajputs. Akbar was watching this encounter standing on the wall of the fort.
}
==========Commanders¬ on Both Sides===========
Defending Army:-
1)Rao Medtiya Jaimal Singh Rathore(Kiledar)
2)Rawat Fateh Singh Chundawat/¬Sisodiya(Head Of The Infantry)
3)Isardas Chauhan(Head Of the Archery Division)
4)Sahib Khan Chauhan(Another Infantry Division)
5)Pathan Ismail Khan(Gunner's/¬Leader of 1000 Pathan Gunner's )
Attacking Army:-
1)Akbar
2)Abdullah Khan
3)Khwaja Abdul Majid
4)Ghazi Khan
5)Mehtar Khan
6)Munim Khan
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Sources:-
1)Muntakhab Ut Tawarikh
2)Akbarnama
3)Tarikh I Akbari
4)Amar Vansh Varnan
5)Oxford History Of India-V.A Smith
6)Amarkavya Vanshawali
7)Mewar and Mughal Emperor'-G.N Sharma
8)Mewar ke Maharana aur shahanshah Akbar-R.S Bhatt
9)Veer Vinod
10)Rajputane ka Itihas,Ojha
11)Rajputane ka Itihas,Gahlot
sanjay dwivedy

Netaji Subhash Chandra Files-Facts



मित्रों! नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा नेताजी पर फाइलों को कांग्रेसियों द्वारा पिछ
ले 70 सालों से जो रहस्य बनाकर रखा गया था,हटा दिया गया है।अब सब कुछ सामने है। इनके अध्य्यन के साथ जो बड़ी चीज़ें निकल कर आएँगी।एक सीरीज में मैं आप लोगों के साथ शेयर करूँगा।बस आप शेयर करके औरों तक पहुचाएं।
साभार www.netajipapers.gov.in पोर्टल





मक्कार एैयाश नेहरु के अंग्रेज प्रधानमंत्री को लिखे इस पत्र से दो बाते तो साफ हो जाती है-
1. नेहरु अंग्रेज सरकार का एजंट था, जीसने अाझादी के पहले अंग्रेजो से साठगाठ कर रखी थी. उसिने दुसरे क्रांतिकारी जैसे भगत सिंह, चंद्रशेखर अाझाद, सुखदेव अादीयो को मरवाया. इसीके बदले मे अंग्रेजो ने भारत छोडते वक्त नेहरु को प्रधानमंत्री बनाया.
2. मक्कार नेहरु जब अंग्रेजो को लिखे पत्र मे कह रहा है की सुभाषचंद्र बोस 'युद्ध अपराधी' है, मतलब असलियत मे अंग्रेजो से युद्ध सुभाषचंद्र बोस ही कर रहे थे, ...अाैर नेहरू तो अंग्रेजो का दलाल खबरी था.
खबर यहा तक है, की सुभाषचंद्र बोस को भारत मे न आने देने मे एवं विदेश मे ही मरवाने मे मक्कार नेहरु का ही हाथ था, जिसमे गांधी का भी सहयोग था.
काँग्रेस ने लिखे इतिहास मे गांधी, नेहरु जैसे अंग्रेजो के दलाल ही अाजादि के हिरो बताये गये, अाैर असली अाझादी के विरो को अपराधी बताया गया. पर, अब मोदीराज मे सच्चायी सामने आकर ही रहेगी.


 


From Sanjay Dwivedi ji.

 

Saturday, January 23, 2016

मारवाड़ मन्दिर -चमत्कारी मन्दिर, amazing magic temple of Marwad, Rajasthan,India


एक मंदिर ऐसा भी है जहा पर पैरालायसिस(लकवे ) का इलाज होता है ! यहाँ पर हर साल हजारो लोग पैरालायसिस(लकवे ) के रोग से मुक्त होकर जाते है यह धाम नागोर जिले के कुचेरा क़स्बे के पास है, अजमेर- नागोर रोड पर यह गावं है ! लगभग ५०० साल पहले एक संत होए थे चतुरदास जी वो सिद्ध योगी थे, वो अपनी तपस्या से लोगो को रोग मुक्त करते थे ! आज भी इनकी समाधी पर सात फेरी लगाने से लकवा जड़ से ख़त्म हो जाता है ! नागोर जिले के अलावा  पूरे देश से लोग आते है और रोग मुक्त होकर जाते है हर साल वैसाख, भादवा और माघ महीने मे पूरे महीने मेला लगता है !
 सन्त चतुरदास जी महाराज के मन्दिर ग्राम बुटाटी में लकवे का इलाज करवाने देश भर से मरीज आते हैं| मन्दिर में नि:शुल्क रहने व खाने की व्यवस्था भी है| लोगों का मानना है कि मंदिर में परिक्रमा लगाने से बीमारी से राहत मिलती है|

राजस्थान की धरती के इतिहास में चमत्कारी के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं| आस्था रखने वाले के लिए आज भी अनेक चमत्कार के उदाहरण मिलते हैं, जिसके सामने विज्ञान भी नतमस्तक है| ऐसा ही उदाहरण नागौर के 40 किलोमीटर दूर स्तिथ ग्राम बुटाटी में देखने को मिलता है। लोगों का मानना है कि जहाँ चतुरदास जी महाराज के मंदिर में लकवे से पीड़ित मरीज का राहत मिलती है।

वर्षों पूर्व हुई बिमारी का भी काफी हद तक इलाज होता है। यहाँ कोई पण्डित महाराज या हकीम नहीं होता ना ही कोई दवाई लगाकर इलाज किया जाता। यहाँ मरीज के परिजन नियमित लगातार 7 मन्दिर की परिक्रमा लगवाते हैं| हवन कुण्ड की भभूति लगाते हैं और बीमारी धीरे-धीरे अपना प्रभाव कम कर देती है| शरीर के अंग जो हिलते डुलते नहीं हैं वह धीरे-धीरे काम करने लगते हैं। लकवे से पीड़ित जिस व्यक्ति की आवाज बन्द हो जाती वह भी धीरे-धीरे बोलने लगता है।

यहाँ अनेक मरीज मिले जो डॉक्टरो से इलाज करवाने के बाद निरास हो गए थे लेकिन उन मरीजों को यहाँ काफी हद तक बीमारी में राहत मिली है। देश के विभिन्न प्रान्तों से मरीज यहाँ आते हैं और यहाँ रहने व परिक्रमा देने के बाद लकवे की बीमारी अशयजनक राहत मिलती है। मरीजों और उसके परिजनों के रहने व खाने की नि:शुल्क व्यवस्था होती है।

दान में आने वाला रुपया मन्दिर के विकास में लगाया जाता है। पूजा करने वाले पुजारी को ट्रस्ट द्वारा तनखाह मिलती है। मंदिर के आस-पास फेले परिसर में सैकड़ों मरीज दिखाई देते हैं, जिनके चेहरे पर आस्था की करुणा जलकती है| संत चतुरदास जी महारज की कृपा का मुक्त कण्ठ प्रशंसा करते दिखाई देते।

Friday, January 22, 2016

समुन्द्र के नीचे मिली द्वारका,Dwaraka under sea shore of Gujarat

समुन्द्र के नीचे मिली द्वारका महाभारत की पुस्ट्टि करती है ।
Dwaraka under sea shore of Gujarat - latest pictures . proof for Mahabharata lord krishna's city dwarka found under the sea which is estimated 12000 years ago so proud for all Hindustanis.
द्वारका भारत के पश्चिम में समुन्द्र के किनारे पर बसी है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भगवान कॄष्ण ने इसे बसाया था। कृष्ण मथुरा में उत्पन्न हुए, गोकुल में पले, पर राज उन्होने द्वारका में ही किया। यहीं बैठकर उन्होने सारे देश की बागडोर अपने हाथ में संभाली। पांड़वों को सहारा दिया। धर्म की जीत कराई और, शिशुपाल और दुर्योधन जैसे अधर्मी राजाओं को मिटाया। द्वारका उस जमाने में राजधानी बन गई थीं। बड़े-बड़े राजा यहां आते थे और बहुत-से मामले में भगवान कृष्ण की सलाह लेते थे। इस जगह का धार्मिक महत्व तो है ही, रहस्य भी कम नहीं है। कहा जाता है कि कृष्ण की मृत्यु के साथ उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। आज भी यहां उस नगरी के अवशेष मौजूद हैं। लेकिन प्रमाण आज तक नहीं मिल सका कि यह क्या है। विज्ञान इसे महाभारतकालीन निर्माण नहीं मानता। काफी समय से जाने-माने शोधकर्ताओं ने यहां पुराणों में वर्णित द्वारिका के रहस्य का पता लगाने का प्रयास किया, लेकिन वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित कोई भी अध्ययन कार्य अभी तक पूरा नहीं किया गया है। 2005 में द्वारिका के रहस्यों से पर्दा उठाने के लिए अभियान शुरू किया गया था। इस अभियान में भारतीय नौसेना ने भी मदद की।अभियान के दौरान समुद्र की गहराई में कटे-छटे पत्थर मिले और यहां से लगभग 200 अन्य नमूने भी एकत्र किए, लेकिन आज तक यह तय नहीं हो पाया कि यह वही नगरी है अथवा नहीं जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था। आज भी यहां वैज्ञानिक स्कूबा डायविंग के जरिए समंदर की गहराइयों में कैद इस रहस्य को सुलझाने में लगे हैं।
आस्था
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आज भी द्वारका की महिमा है। यह चार धामों में एक है। सात पुरियों में एक पुरी है। इसकी सुन्दरता बखानी नहीं जाती। समुद्र की बड़ी-बड़ी लहरें उठती है और इसके किनारों को इस तरह धोती है, जैसे इसके पैर पखार रही हो
पहले तो मथुरा ही कृष्ण की राजधानी थी। पर मथुरा उन्होने छोड़ दी और द्वारका बसाई।
द्वारका एक छोटा-सा-कस्बा है। कस्बे के एक हिस्से के चारों ओर चहारदीवारी खिंची है इसके भीतर ही सारे बड़े-बड़े मन्दिर है।
निकटवर्ती तीर्थ - गोमती द्वारका
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द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा ताल है। इसे गोमती तालाब कहते है। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते है।
निष्पाप कुण्ड
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इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें हैं।
रणछोड़ जी मंदिर
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गोमती के दक्षिण में पांच कुंए है। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर। रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। भगवान कृष्ण को उधर रणछोड़जी कहते है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल। सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे है। एक तरफ ऊपर की मंमें जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिले है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती है।
परिक्रमा
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रणछोड़जी के दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा की जाती है। मन्दिर की दीवार दोहरी है। दो दावारों के बीच इतनी जगह है कि आदमी समा सके। यही परिक्रमा का रास्ता है। रणछोड़जी के मन्दिर के सामने एक बहुत लम्बा-चौड़ा १०० फुट ऊंचा जगमोहन है। इसकी पांच मंजिलें है और इसमें ६0 खम्बे है। रणछोड़जी के बाद इसकी परिक्रमा की जाती है। इसकी दीवारे भी दोहरी है।
दुर्वासा और त्रिविक्रम मंदिर
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दक्षिण की तरफ बराबर-बराबर दो मंदिर है। एक दुर्वासाजी का और दूसरा मन्दिर त्रिविक्रमजी को टीकमजी कहते है। इनका मन्दिर भी सजा-धजा है। मूर्ति बड़ी लुभावनी है। और कपड़े-गहने कीमती है। त्रिविक्रमजी के मन्दिर के बाद प्रधुम्नजी के दर्शन करते हुए यात्री इन कुशेश्वर भगवान के मन्दिर में जाते है। मन्दिर में एक बहुत बड़ा तहखाना है। इसी में शिव का लिंग है और पार्वती की मूर्ति है।
कुशेश्वर मंदिर
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कुशेश्वर शिव के मन्दिर के बराबर-बराबर दक्षिण की ओर छ: मन्दिर और है। इनमें अम्बाजी और देवकी माता के मन्दिर खास हैं। रणछोड़जी के मन्दिर के पास ही राधा, रूक्मिणी, सत्यभामा और जाम्बवती के छोटे-छोटे मन्दिर है। इनके दक्षिण में भगवान का भण्डारा है और भण्डारे के दक्षिण में शारदा-मठ है।
शारदा मठ
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शारदा-मठ को आदि गुरू शंकराचार्य ने बनबाया था। उन्होने पूरे देश के चार कोनों मे चार मठ बनायें थे। उनमें एक यह शारदा-मठ है। रणछोड़जी के मन्दिर से द्वारका शहर की परिक्रमा शुरू होती है। पहले सीधे गोमती के किनारे जाते है। गोमती के नौ घाटों पर बहुत से मन्दिर है- सांवलियाजी का मन्दिर, गोवर्धननाथजी का मन्दिर, महाप्रभुजी की बैठक।
हनुमान मंदिर
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आगे वासुदेव घाट पर हनुमानजी का मन्दिर है। आखिर में संगम घाट आता है। यहां गोमती समुद्र से मिलती है। इस संगम पर संगम-नारायणजी का बहुत बड़ा मन्दिर है।
चक्र तीर्थ
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संगम-घाट के उत्तर में समुद्र के ऊपर एक ओर घाट है। इसे चक्र तीर्थ कहते है। इसी के पास रत्नेश्वर महादेव का मन्दिर है। इसके आगे सिद्धनाथ महादेवजी है, आगे एक बावली है, जिसे ‘ज्ञान-कुण्ड’ कहते है। इससे आगे जूनीराम बाड़ी है, जिससे, राम, लक्ष्मण और सीता की मूर्तिया है। इसके बाद एक और राम का मन्दिर है, जो नया बना है। इसके बाद एक बावली है, जिसे सौमित्री बावली यानी लक्ष्मणजी की बावजी कहते है। काली माता और आशापुरी माता की मूर्तिया इसके बाद आती है।
कैलाश कुण्ड
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इनके आगे यात्री कैलासकुण्ड़ पर पहुंचते है। इस कुण्ड़ का पानी गुलाबी रंग का है। कैलासकुण्ड़ के आगे सूर्यनारायण का मन्दिर है। इसके आगे द्वारका शहर का पूरब की तरफ का दरवाजा पड़ता है। इस दरवाजे के बाहर जय और विजय की मूर्तिया है। जय और विजय बैकुण्ठ में भगवान के महल के चौकीदार है। यहां भी ये द्वारका के दरवाजे पर खड़े उसकी देखभाल करते है। यहां से यात्री फिर निष्पाप कुण्ड पहुंचते है और इस रास्ते के मन्दिरों के दर्शन करते हुए रणछोड़जी के मन्दिर में पहुंच जाते है। यहीं परिश्रम खत्म हो जाती है। यही असली द्वारका है। इससे बीस मील आगे कच्छ की खाड़ी में एक छोटा सा टापू है। इस पर बेट-द्वारका बसी है। गोमती द्वारका का तीर्थ करने के बाद यात्री बेट-द्वारका जाते है। बेट-द्वारका के दर्शन बिना द्वारका का तीर्थ पूरा नही होता। बेट-द्वारका पानी के रास्ते भी जा सकते है और जमीन के रास्ते भी।
गोपी तालाब
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जमीन के रास्ते जाते हुए तेरह मील आगे गोपी-तालाब पड़ता है। यहां की आस-पास की जमीन पीली है। तालाब के अन्दर से भी रंग की ही मिट्टी निकलती है। इस मिट्टी को वे गोपीचन्दन कहते है। यहां मोर बहुत होते है। गोपी तालाब से तीन-मील आगे नागेश्वर नाम का शिवजी और पार्वती का छोटा सा मन्दिर है। यात्री लोग इसका दर्शन भी जरूर करते है। कहते है, भगवान कृष्ण इस बेट-द्वारका नाम के टापू पर अपने घरवालों के साथ सैर करने आया करते थे। यह कुल सात मील लम्बा है। यह पथरीला है। यहां कई अच्छे और बड़े मन्दिर है। कितने ही तालाब है। कितने ही भंडारे है। धर्मशालाएं है और सदावर्त्त लगते है। मन्दिरों के सिवा समुद्र के किनारे घूमना बड़ा अच्छा लगता है।
भेंट द्वारका
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बेट-द्वारका ही वह जगह है, जहां भगवान कृष्ण ने अपने प्यारे भगत नरसी की हुण्डी भरी थी। बेट-द्वारका के टापू का पूरब की तरफ का जो कोना है, उस पर हनुमानजी का बहुत बड़ा मन्दिर है। इसीलिए इस ऊंचे टीले को हनुमानजी का टीला कहते है। आगे बढ़ने पर गोमती-द्वारका की तरह ही एक बहुत बड़ी चहारदीवारी यहां भी है। इस घेरे के भीतर पांच बड़े-बड़े महल है। ये दुमंजिले और तिमंजले है। पहला और सबसे बड़ा महल श्रीकृष्ण का महल है। इसके दक्षिण में सत्यभामा और जाम्बवती के महल है। उत्तर में रूक्मिणी और राधा के महल है। इन पांचों महलों की सजावट ऐसी है कि आंखें चकाचौंध हो जाती हैं। इन मन्दिरों के किबाड़ों और चौखटों पर चांदी के पतरे चढ़े हैं। भगवान कृष्ण और उनकी मूर्ति चारों रानियों के सिंहासनों पर भी चांदी मढ़ी है। मूर्तियों का सिंगार बड़ा ही कीमती है। हीरे, मोती और सोने के गहने उनको पहनाये गए हैं। सच्ची जरी के कपड़ों से उनको सजाया गया है।
चौरासी धुना - भेंट द्वारका टापू में भगवान द्वारकाधीश के मंदिर से ७ कि.मी. की दूरी पर चौरासी धुना नामक एक प्राचीन एवं एतिहासिक तीर्थ स्थल है| उदासीन संप्रदाय के सुप्रसिद्ध संत और प्रख्यात इतिहास लेखक, निर्वाण थडा तीर्थ, श्री पंचयाती अखाडा बड़ा उदासीन के पीठाधीश्वर महंत योगिराज डॉ॰ बिंदुजी महाराज "बिंदु" के अनुसार ब्रह्माजी के चारों मानसिक पुत्रो सनक, सनंदन, सनतकुमार और सनातन ने ब्रह्माजी की श्रृष्टि-संरचना की आज्ञा को न मानकर उदासीन संप्रदाय की स्थापना की और मृत्यु-लोक में विविध स्थानों पर भ्रमण करते हुए भेंट द्वारका में भी आये| उनके साथ उनके अनुयायियों के रूप में अस्सी (८०) अन्य संत भी साथ थें| इस प्रकार चार सनतकुमार और ८० अनुयायी उदासीन संतो को जोड़कर ८४ की संख्या पूर्ण होती है| इन्ही ८४ आदि दिव्य उदासीन संतो ने यहाँ पर चौरासी धुने स्थापित कर साधना और तपस्चर्या की और ब्रह्माजी को एक एक धुने की एकलाख महिमा को बताया, तथा चौरासी धुनो के प्रति स्वरुप चौरासी लाख योनिया निर्मित करने का सांकेतिक उपदेश दिया| इस कारन से यह स्थान चौरासी धुना के नाम से जग में ख्यात हुआ| कालांतर में उदासीन संप्रदाय के अंतिम आचार्य जगतगुरु उदासिनाचार्य श्री चन्द्र भगवान इस स्थान पर आये और पुनः सनकादिक ऋषियों के द्वारा स्थापित चौरासी धुनो को जागृत कर पुनः प्रज्वलित किया और उदासीन संप्रदाय के एक तीर्थ के रूप में इसे महिमामंडित किया| यह स्थान आज भी उदासीन संप्रदाय के अधीन है और वहां पर उदासी संत निवास करते हैं| आने वाले यात्रियों, भक्तों एवं संतों की निवास, भोजन आदि की व्यवस्था भी निःशुल्क रूप से चौरासी धुना उदासीन आश्रम के द्वारा की जाती है| जो यात्री भेंट द्वारका दर्शन हेतु जाते हैं वे चौरासी धुना तीर्थ के दर्शन हेतु अवश्य जाते हैं| ऐसी अवधारणा है की चौरासी धुनो के दर्शन करने से मनुष्य की लाख चौरासी कट जाती है, अर्थात उसे चौरासी लाख योनियों में भटकना नहीं पड़ता और वह मुक्त हो जाता है|
रणछोड़ जी मंदिर
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रणछोड़ जी के मन्दिर की ऊपरी मंजिलें देखने योग्य है। यहां भगवान की सेज है। झूलने के लिए झूला है। खेलने के लिए चौपड़ है। दीवारों में बड़े-बड़े शीशे लगे है। इन पांचों मन्दिरों के अपने-अलग भण्डारे है। मन्दिरों के दरवाजे सुबह ही खुलते है। बारह बजे बन्द हो जाते है। फिर चार बजे खुल जाते है। और रात के नौ बजे तक खुले रहते है। इन पांच विशेष मन्दिरों के सिवा और भी बहुत-से मन्दिर इस चहारदीवारी के अन्दर है। ये प्रद्युम्नजी, टीकमजी, पुरूषोत्तमजी, देवकी माता, माधवजी अम्बाजी और गरूड़ के मन्दिर है। इनके सिवाय साक्षी-गोपाल, लक्ष्मीनारायण और गोवर्धननाथजी के मन्दिर है। ये सब मन्दिर भी खूब सजे-सजाये है। इनमें भी सोने-चांदी का काम बहुत है।
बेट-द्वारका में कई तालाब है-रणछोड़ तालाब, रत्न-तालाब, कचौरी-तालाब और शंख-तालाब। इनमें रणछोड तालाब सबसे बड़ा है। इसकी सीढ़िया पत्थर की है। जगह-जगह नहाने के लिए घाट बने है। इन तालाबों के आस-पास बहुत से मन्दिर है। इनमें मुरली मनोहर, नीलकण्ठ महादेव, रामचन्द्रजी और शंख-नारायण के मन्दिर खास है। लोगा इन तालाबों में नहाते है और मन्दिर में फूल चढ़ाते है।
शंख तालाब
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रणछोड़ के मन्दिर से डेढ़ मील चलकर शंख-तालाब आता है। इस जगह भगवान कृष्ण ने शंख नामक राक्षस को मारा था। इसके किनारे पर शंख नारायण का मन्दिर है। शंख-तालाब में नहाकर शंख नारायण के दर्शन करने से बड़ा पुण्य होता है।
बेट-द्वारका से समुद्र के रास्ते जाकर बिरावल बन्दरगाह पर उतरना पड़ता है। ढाई-तीन मील दक्षिण-पूरब की तरफ चलने पर एक कस्बा मिलता है इसी का नाम सोमनाथ पट्टल है। यहां एक बड़ी धर्मशाला है और बहुत से मन्दिर है। कस्बे से करीब पौने तीन मील पर हिरण्य, सरस्वती और कपिला इन तीन नदियों का संगम है। इस संगम के पास ही भगवान कृष्ण के शरीर का अंतिम संस्कार किया गया था।
बाण तीर्थ
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कस्बे से करीब एक मील पश्चिम मे चलने पर एक और तीर्थ आता है। यहां जरा नाम के भील ने कृष्ण भगवान के पैर में तीर मारा था। इसी तीर से घायल होकर वह परमधाम गये थे। इस जगह को बाण-तीर्थ कहते है। यहां बैशाख मे बड़ा भारी मेला भरता है। बाण-तीर्थ से डेढ़ मील उत्तर में एक और बस्ती है। इसका नाम भालपुर है। वहां एक पद्मकुण्ड नाम का तालाब है। हिरण्य नदी के दाहिने तट पर एक पतला-सा बड़ का पेड़ है। पहले इस सथान पर बहुत बड़ा पेड़ था। बलरामजी ने इस पेड़ के नीचे ही समाधि लगाई थी। यहीं उन्होनें शरीर छोड़ा थासोमनाथ पट्टन बस्ती से थोड़ी दूर पर हिरण्य नदी के किनारे एक स्थान है, जिसे यादवस्थान कहते हैं। यहां पर एक तरह की लंबी घास मिलती है, जिसके चौड़े-चौड़ पत्ते होते है। यही वही घास है, जिसको तोड़-तोडकर यादव आपस में लड़े थे और यही वह जगह है, जहां वे खत्म हुए थे।
सोमनाथ
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इस सोमनाथ पट्टन कस्बे में ही सोमनाथ भगवान का प्रसिद्ध मन्दिर है। इस मन्दिर को महमूद गजनवी ने तोड़ा था। यह समुद्र के किनारे बना है इसमें काला पत्थर लगा है। इतने हीरे और रत्न इसमें कभी जुडे थे कि देखकर बड़े-बड़े राजाओं के खजाने भी शरमाजायं। शिवलिंग के अन्दर इतने जवाहरात थे कि महमूद गजनवी को ऊंटों पर लादकर उन्हें ले जाना पड़ा। महमूद गजनवी के जाने के बाद यह दुबारा न बन सका। लगभग सात सौ साल बाद इन्दौर की रानी अहिल्याबाई ने एक नया सोमनाथ का मन्दिर कस्बे के अन्दर बनबाया था। यह अब भी खड़ा है।
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Wednesday, January 13, 2016

इस जाट राजा ने नेताजी से 28 साल पहले बना ली थी 'आजाद हिंद' सरकार! नोबेल के लिएहुआ था नॉमिनेट

25 दिसंबर 2015 का दिन था। दुनिया क्रिसमस मना रही थी, भारत में वाजपेयी जी का जन्मदिन मनाया जा रहा था तो पाकिस्तान में जिन्ना के साथ-साथ नवाज शरीफ की सालगिरह। पीएम मोदी रूस से सीधे पहुंचे अफगानिस्तान की राजधानी काबुल, उनकी नई संसद में अटल ब्लॉक का उद्घाटन किया और अफगानिस्तान की संसद को संबोधित किया। उसके बाद मोदी सीधे पहुंच गए पाकिस्तान।


इतिहास में ये तारीख हमेशा के लिए दर्ज हो गई है कि कैसे भारत का पीएम पाकिस्तान के पीएम की सालगिरह मनाने अचानक से उड़कर पाकिस्तान पहुंच जाता है। दोनों देशों की मीडिया के लिए ही नहीं दुनिया भर की मीडिया के लिए ये बड़ी खबर थी, लेकिन इस बड़ी खबर में ऐतिहासिक नजरिये से एक बहुत बड़ी खबर बताने से देश की मीडिया चूक गई और वो ये कि जिस व्यक्ति ने एक बार लोकसभा चुनावों में भाजपा के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को करारी शिकस्त दी थी, भाजपा के दूसरे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काबुल की संसद में उस व्यक्ति की जमकर, दिल खोलकर तारीफ की।


कौन था वो व्यक्ति, जिसने मोदी को काबुल की संसद में अपनी तारीफ करने पर मजबूर कर दिया, ये मोदी की मजबूरी थी या भाजपा का महापुरुषों को लेकर बदलता नजरिया, जैसा कि संघ को एक बार बैन करने वाले सरदार पटेल आज भाजपा के पसंदीदा महापुरुषों में गिने जाने लगे हैं? ये व्यक्ति थे उत्तर प्रदेश के जिला हाथरस के राजा महेंद्र प्रताप सिंह।


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आमतौर पर हाथरस जिले का भारत के नक्शे पर कोई बहुत महत्वपूर्ण स्थान नहीं बन पाया, आम आदमी उसे काका हाथरसी की नगरी के तौर पर जानता है, या हींग, घी, रंग, रबड़ी जैसे कुछ उम्दा प्रोडक्ट्स केंद्र के तौर पर । उसकी वजह भी है कि सरदार पटेल की तरह राजा महेंद्र प्रताप के साथ भी कांग्रेस सरकार के इतिहासकारों ने नाइंसाफी की, इस इंटरनेशनल क्रांतिकारी का कद कई मायनों में गांधी और बोस के करीब है, ये वो व्यक्ति है जिसने देश के भावी पीएम को चुनावों में धूल चटा दी, ये वो क्रांतिकारी है जिसने 28 साल पहले वो काम कर दिया, जो नेताजी बोस ने 1943 में आकर किया। ये वो व्यक्ति है, जिसे गांधी की तरह ही नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया और उन दोनों ही साल नोबेल पुरस्कार का ऐलान नहीं हुआ और पुरस्कार राशि स्पेशल फंड में बांट दी गई।


राजा महेंद्र प्रताप का सही से आकलन इतिहासकारों ने किया होता तो आज राजा को ही नहीं दुनिया हाथरस जिले को और उनकी रियासत मुरसान को भी उसी तरह से जानती, जैसे बाकी महापुरुषों के शहरों को जाना जाता है। आखिर कोई तो बात थी राजा में कि पीएम मोदी ने उदघाटन तो काबुल की संसद में अटल ब्लॉक का किया और तारीफ राजा महेंद्र प्रताप की की, वो भी तब जब राजा खुद को मार्क्सवादी कहते थे, यानी वामपंथी जो आरएसएस के सबसे बड़े विरोधी माने जाते हैं, लेनिन ने उनके क्रांतिकारों विचारों से प्रभावित होकर उन्हें रूस मिलने बुलाया था और राजा को अपनी जो किताब उपहार में दी, उसे वो पहले ही पढ़ चुके थे, टॉलस्टॉयवाद।


पहले ये जानिए पीएम मोदी ने काबुल की संसद में क्या स्पीच दी थी, मोदी ने कहा था,“Indians remember the support of Afghans for our freedom struggle; the contribution of Khan Abdul Gaffar Khan, revered as Frontier Gandhi; and, the important footnote of that history, when, exactly hundred years ago, the first Indian Government-in-Exile was formed in Kabul by Maharaja Mahendra Pratap and Maulana Barkatullah.King Amanullah once told the Maharaja that so long as India was not free, Afghanistan was not free in the right sense. Honourable Members, This is the spirit of brotherhood between us”।
फ्रंटियर या सीमांत गांधी को जानने वाले आज लाखों मिल जाएंगे, लेकिन राजा महेंद्र प्रताप का नाम कितने लोग जानते हैं, मोदी ने सीमांत गांधी के साथ राजा महेंद्र प्रताप का नाम लिया और उनके और अफगानिस्तान के किंग के बीच की बातचीत को भाईचारे की भावना का प्रतीक बताया।


महेंद्र प्रताप शुरू से ही आम शाही नवयुवकों की तरह नहीं थे। उनके पास मौका था कि वो भी राजाओं के बने संघ में शामिल होकर अंग्रेजों से अपने लिए बेहतर सुविधाओं की मांग करते और खुश रहते। लेकिन वो उनमें से नहीं थे, उनकी पढ़ाई मोहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज, अलीगढ़ में हुई, जो आज अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी के तौर पर जाना जाता है। शुरू से ही अंग्रेज, मुस्लिम टीचर और मुस्लिम मित्रों के बीच रहने से राजा की सोच इंटरनेशनल हो गई। उनके अंदर क्रांति की लहरें हिलोरे मारने लगी। 1905 के स्वदेशी आंदोलन से वो इतना प्रभावित हुए कि अपने ससुर के मना करने के बावजूद वो 1906 के कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में हिस्सा लेने चले गए।
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मार्क्सवादी होने के बावजूद उन्हें कांग्रेस के हिंदूवादी नेता बाल गंगाधर तिलक और विपिन चंद्र पाल पसंद आते थे। हालांकि 1902 में ही जींद की सिख राजकुमारी से उनकी शादी हो गई। लेकिन उनके अंतरमन की आग आसानी से बुझने वाली नहीं थी। एक बार तो छुआछूत के खिलाफ लोगों को साथ लाने के लिए उन्होंने अलमोड़ा में वहां की नीची जाति के परिवार के घर में खाना खाया, तो आगरा में भी एक दलित परिवार के साथ खाना खाया।


19वीं सदी के पहले दशक में एक जाट और राजा के परिवार में कोई ऐसा सोचने की भी हिम्मत नहीं कर सकता था। फिर विदेशी वस्त्रों के खिलाफ अपनी रियासत में उन्होंने जबरदस्त अभियान चलाया। बाद में उनको लगा कि देश में रहकर कुछ नहीं हो सकता। लाला हरदयाल, वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, रास बिहारी बोस, श्याम जी कृष्ण वर्मा, अलग- अलग देशों से ब्रिटिश सरकार की गुलामी के खिलाफ उस वक्त भारत के लिए अभियान चला रहे थे। उस वक्त तक जर्मनी में रह रहे भारतीय क्रांतिकारी बर्लिन कमेटी बना चुके थे, प्रथम विश्वयुद्ध को वो एक मौका मान रहे थे, जब इंग्लैंड की विरोधी शक्तियों से हाथ मिलाकर भारत को गुलामी से मुक्ति दिलाई जा सके।


राजा महेंद्र का नाम तब तक इतना हो चुका था कि स्विट्जरलैंड में उनकी मौजूदगी की भनक लगते ही चट्टोपाध्याय ने लाला हरदयाल और श्याम जी कृष्ण वर्मा को उन्हें बर्लिन बुलाने को कहा। बाकायदा जर्मनी के विदेश मंत्रालय से कहा गया उन्हें बुलाने को। लेकिन राजा ने खुद जर्मनी के किंग से व्यक्तिगत तौर पर मिलने की इच्छा जताई, इधर जर्मनी के राजा भी उनसे मिलना चाहते थे, जर्मनी के राजा ने उन्हें ऑर्डर ऑफ दी रैड ईगल की उपाधि से सम्मानित किया। राजा जींद के दामाद थे और उन्होंने अफगानिस्तान की सीमा से भारत में घुसने के लिए पंजाब की फुलकियां स्टेट्स जींद, नाभा और पटियाला की रणनीतिक पोजीशन की उनसे चर्चा की।


जर्मन राजा से काफी भरोसा पाकर वो बर्लिन से चले आए। बर्लिन छोड़ने से पहले उन्होंने पोलैंड बॉर्डर पर सेना के कैंप में रहकर युद्ध की ट्रेनिंग भी ली। उसके बाद वो स्विट्जरलैंड, तुर्की, इजिप्ट में वहां के शासकों से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ सपोर्ट मांगने गए, उसके बाद अफगानिस्तान पहुंचे। उन्हें लगा कि यहां रहकर वो भारत के सबसे करीब होंगे और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग यहां रहकर लड़ी जा सकती है।
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आप जानकर हैरत में पड़ जाएंगे कि उस वक्त जब वो कई देश के राजाओं से अपने देश की आजादी के लिए मिल रहे थे, उनकी उम्र महज 28 साल थी और अगले 32 साल वो दुनिया भर की खाक ही छानते रहे..... दरबदर।


एक दिसंबर 1915 का दिन था, राजा महेंद्र प्रताप का जन्मदिन, उस दिन वो 28 साल के हुए थे। उन्होंने भारत से बाहर देश की पहली निर्वासित सरकार का गठन किया, बाद में सुभाष चंद्र बोस ने 28 साल बाद उन्हीं की तरह आजाद हिंद सरकार का गठन सिंगापुर में किया था। राजा महेंद्र प्रताप को उस सरकार का राष्ट्रपति बनाया गया यानी राज्य प्रमुख। मौलवी बरकतुल्लाह को राजा का प्रधानमंत्री घोषित किया गया और अबैदुल्लाह सिंधी को गृहमंत्री।


भोपाल के रहने वाले बरकतुल्लाह के नाम पर बाद में भोपाल में बरकतुल्लाह यूनीवर्सिटी खोली गई। राजा की इस काबुल सरकार ने बाकायदा ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जेहाद का नारा दिया। लगभग हर देश में राजा की सरकार ने अपने राजदूत नियुक्त कर दिए, बाकायदा वो उन सरकारों से बतौर भारत के राजदूत मान्यता देने की बातचीत में जुट गए। लेकिन उस वक्त ना कोई बेहतर सैन्य रणनीति थी और ना ही उन्हें इस रिवोल्यूशरी आइडिया के लिए बोस जैसा समर्थन मिला और सरकार प्रतीकात्मक रह गई। लेकिन राजा की लड़ाई थमी नहीं उनकी जिंदगी तो हंगामाखेज थी।


दिलचस्प बात ये थी कि जिस साल में राजा ने भारत की पहली निर्वासित सरकार बनाई, उसी साल गांधी जी साउथ अफ्रीका से भारत वापस लौटे थे और प्रथम विश्व युद्ध के लिए भारतीयों को ब्रिटिश सेना में भर्ती करवा रहे थे, उन्हें भर्ती करने वाला सर्जेंट तक कहा गया था।


राजा के सिर पर ब्रिटिश सरकार ने इनाम रख दिया, रियासत अपने कब्जे में ले ली, और राजा को भगोड़ा घोषित कर दिया। राजा ने काफी परेशानी के दिन झेले। फिर उन्होंने जापान में जाकर एक मैगजीन शुरू की, जिसका नाम था वर्ल्ड फेडरेशन। लंबे समय तक इस मैगजीन के जरिए ब्रिटिश सरकार की क्रूरता को वो दुनिया भर के सामने लाते रहे। फिर दूसरे विश्व युद्ध के दौरान राजा ने फिर एक एक्जीक्यूटिव बोर्ड बनाया, ताकि ब्रिटिश सरकार को भारत छोड़ने के लिए मजूबर किया जा सके। लेकिन युद्ध खत्म होते-होते सरकार राजा की तरफ नरम हो गई थी, फिर आजादी होना भी तय मानी जाने लगी। राजा को भारत आने की इजाजत मिली। ठीक 32 साल बाद राजा भारत आए, 1946 में राजा मद्रास के समुद्र तट पर उतरे। वहां से वो घर नहीं गए, सीधे वर्धा पहुंचे गांधीजी से मिलने।


गांधीजी और राजा में अजीबो-गरीब रिश्ता था, बहुत कम लोगों को पता होगा कि हाथरस के इस राजा को नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था और एक तय वक्त के बाद नोबेल कमेटी के कमेंट्स को सार्वजनिक कर दिया जाता है।


राजा के बारे में नोबेल कमेटी ने उस वक्त क्या लिखा था ये पढ़िए, "Pratap gave up his property for educational purposes, and he established a technical college at Brindaban. In 1913 he took part in Gandhi's campaign in South Africa. He travelled around the world to create awareness about the situation in Afghanistan and India. In 1925 he went on a mission to Tibet and met the Dalai Lama. He was primarily on an unofficial economic mission on behalf of Afghanistan, but he also wanted to expose the British brutalities in India. He called himself the servant of the powerless and weak."।


सबसे खास बात थी कि नोबेल पुरस्कार समिति की इन्हीं लाइनों से ये पता चला कि वो गांधीजी के साउथ अफ्रीका वाले आंदोलन में भी हिस्सा लेने जा पहुंचे थे, इतना ही नहीं वो तिब्बत मिशन पर दलाई लामा से भी मिले थे। ऐसी इंटरनेशनल तबीयत के थे राजा महेंद्र प्रताप। उस साल किसी को भी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया, सारी पुरस्कार राशि किसी स्पेशल फंड में दे दी गई। इसका गांधी कनेक्शन ये है कि बिलकुल ऐसा ही तब हुआ था, जब गांधीजी को 1948 में नोबेल पुरस्कार के लिए नॉमिनेट किया गया था, गांधीजी की हत्या होने के चलते बात आगे नहीं बढ़ी और उस साल भी नोबेल पुरस्कार के लिए किसी के नाम का ऐलान नहीं हुआ। सारा पैसा स्पेशल फंड में दे दिया गया।


नोबेल पुरस्कार समिति के कमेंट्स से ही पता चलता है कि गांधीजी ने एक बार राजा महेंद्र प्रताप की अपने अखबार यंग इंडिया में जमकर तारीफ की थी, गांधीजी ने लिखा था, “"For the sake of the country this nobleman has chosen exile as his lot. He has given up his splendid property...for educational purposes. Prem Mahavidyalaya...is his creation,"।


गांधीजी से उनके गहरे नाते की मिसाल देखिए, 32 साल बाद भारत आए तो सीधे उनसे मिलने जा पहुंचे, मद्रास से सीधे वर्धा। बावजूद इसके वो कांग्रेस में शामिल नहीं हुए। लेकिन उनकी हस्ती इस कदर बड़ी थी कि कांग्रेस तो कांग्रेस उस वक्त के जनसंघ के बड़े नेता और भावी पीएम अटल बिहारी वाजपेयी को भी लोकसभा के चुनावों में उन्होंने धूल चटा दी। वो 1952 में मथुरा से निर्दलीय सांसद बने और 1957 में फिर से अटल बिहारी वाजपेयी को हराकर निर्दलीय ही सांसद चुने गए। बिना किसी का अहसान लिए शान से राजा की तरह जीते रहे।


राजा महेंद्र प्रताप की उपलब्धियां यहीं कम नहीं होतीं, उनके खाते में भारत का पहला पॉलिटेक्निक कॉलेज भी है। अपने बेटे का नाम रखा उन्होंने प्रेम और वृंदावन में एक पॉलिटेक्निक कॉलेज खोला, जिसका नाम रखा प्रेम महाविद्यालय। राजा मॉर्डन एजुकेशन के हिमायती थे, तभी एएमयू के लिए भी जमीन दान कर दी।


देश की आजादी के बाद लोग मानते थे कि उनसे बेहतर कोई विदेश मंत्री नहीं हो सकता था, लेकिन उन्होंने किसी से कुछ मांगा नहीं और आमजन के लिए काम करते रहे। पंचायत राज कानूनों, किसानों और फ्रीडम फाइटर्स के लिए लड़ते रहे।


राजा जो भी काम करते थे, वो क्रांति के स्तर पर जाकर करते थे। हिंदू घराने में वो पैदा हुए थे, मुस्लिम संस्था में वो पढ़े थे, यूरोप में तमाम ईसाइयों से उनके गहरे रिश्ते थे, सिख धर्म मानने वाले परिवार से उनकी शादी हुई थी। लेकिन उनको लगता था मानव धर्म ही सबसे बड़ा धर्म है या सब धर्मों का सार ये है कि मानवीयता को, प्रेम को बढ़ावा मिलना चाहिए। राजा महेंद्र प्रताप ने तब वो कर डाला जो कभी मुगल बादशाह अकबर ने किया था, जैसे अकबर ने नया धर्म दीन ए इलाही चलाया था, वैसे भी राजा महेंद्र प्रताप ने भी एक नया धर्म शुरू कर दिया, प्रेम धर्म। इस धर्म के अनुयायियों का एक ही उद्देश्य था प्रेम से रहना, प्रेम बांटना और प्रेम भाईचारे का संदेश देना। हालांकि दीन ए इलाही की तरह प्रेम धर्म भी उसको चलाने वाले के साथ ही गुमनामी में खो गया।

Mahendra


मोदी ने अचानक से यूं ही उनका नाम नहीं लिया, अफगानिस्तान और भारत के संबंधों पर रिसर्च हुई होगी तो सबसे कद्दावर नाम इतिहास से राजा महेंद्र प्रताप का निकला, मार्क्सवादी होने के बावजूद उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।


पिछले कुछ सालों से अलीगढ़ के स्थानीय बीजेपी नेता एएमयू में राजा महेंद्र प्रताप के एएमयू में योगदान के चलते कैंपस में उनकी जयंती मनाने को लेकर कोशिश करते आ रहे हैं। वैसे भी राजा के दामन में कोई दाग नहीं है और राजा को वो नहीं मिला, जिसके वो वाकई में हकदार थे। सबसे बड़ी बात ये कि उनके अपने शहर हाथरस में उन्हें जानने वाले युवा ढूंढे नहीं मिलेंगे।


उनकी मौत के बाद सरकार ने उसी साल एक डाक टिकट जारी करके इतिश्री कर दी। लेकिन क्या उनके कामों और योगदान को देखते हुए इंसाफ हुआ उनके साथ? आप खुद तय करिए। राजा महेंद्र प्रताप भी उन्हीं तमाम चेहरों में से हैं, जिनका आजादी के बाद इतिहासकारों ने सही ढंग से मूल्यांकन नहीं किया।  दुनिया भले ही नोबेल के लायक उनको मान ले, लेकिन सरकार उनकी जयंती तक मनाने लायक नहीं समझती आई और ये नाइंसाफी की मार केवल राजा महेंद्र प्रताप ने ही नहीं भुगती, उनके जिले हाथरस ने भी भुगती है।