Wednesday, July 2, 2014

राष्ट्र-धर्मके रक्षक श्री गुरु गोविंदसिंह !

श्री गुरु गोविंदसिंहक्षात्रतेज तथा ब्राह्मतेजसे ओतप्रोत  श्री गुरु गोविंदसिंहजीके विषयमें ऐसा कहा जाता है कि, ‘यदि वे  न होते, तो सबकी सुन्नत होती ।’ यह  शतप्रतिशत सत्य भी  है । देश तथा धर्मके लिए कुछ करनेकी इच्छा गुरु गोविंदसिंहमें बचपनसेही  पनप रही थी । इसीलिए धर्मके लिए उनके पिताजी अद्वितीय बलिदानकी सिद्धता कर रहे थे, तब उन्होंने धर्मरक्षाका दायित्व स्वीकार किया, वह भी केवल ९ वर्षकी आयुमें ! एक ओर युद्धकी व्यूहरचना तथा दुसरी ओर वीररस एवं भक्तिरससे परिपूर्ण चरित्रग्रंथ एवं काव्योंकी निर्मिति, इस प्रकार दोनों ओरसे गुरुजीने राष्ट्र-धर्मकी रक्षा की ।

१. श्री गुरु गोविंदसिंहजीकी क्षात्रवृत्ति दर्शानेवाले उनके जीवनके कुछ प्रसंग !

१ अ. गोविंदजीको  युद्ध करनमें बहुत रुचि थी । इसलिए  बचपनमें वे अपने  बालमित्रोंके दो  गुट  कर उनमें कृत्रिम युद्ध खेला करते थे ।
१ आ. पटनाके मुसलमान सत्ताधीशोंके आगे सिर झुकाकर अभिवादन न करनेका साहसभरा कृत्य  वे बचपनसे करते  थे ।

१ इ. धर्मरक्षाके लिए स्वयंका बलिदान देनेकी इच्छा रखनेवाले गुरु तेगबहादूरको भविष्यमें

धर्म रक्षाके कार्यके लिए अपनी समर्थताको अपनी ओजस्वी वाणीसे प्रमाणित करनेवाले गुरू गोविंद !

        वह काल मुघल सम्राट औरंगजेबके क्रूर शासनका था । कश्मीरके मुघल शासक अफगाण शेरके अत्याचारोंसे कश्मीरी पंडित त्रस्त हुए थे ।  उच्चवर्णिय तथा ब्राह्मणोंका बलपूर्वक  धर्मपरिवर्तन किया जा रहा था ।  गुरु तेगबहादूरने पूरे देशमें भ्रमण किया था; इसलिए उन्होंने सर्वत्रकी परिस्थितिका निकटसे अवलोकन किया था । तब स्वरक्षा हेतु कश्मीरी पंडितोंका  एक प्रतिनिधिमंडल पंडित कृपाराम दत्तजीके नेतृत्वमें आनंदपूरमें गुरु तेगबहादूरकी शरणमें आया । एक ओर औरंगजेब हिंदुओंके मतपरिवर्तनके  लिए सर्व प्रकारके अत्याचार एवं  कठोर उपायोंका अवलंब कर  रहा था, तो  दूसरी ओर हिंदू समाजमें दुर्बलता तथा आपसी मतभेदोंने उच्चांक प्रस्थापित किया था । समाजमें संगठितता नहीं थी तथा राष्ट्रीयताकी भावना न्यून हो गई थी । गुरु तेगबहादूरने पंडितोंसे कहा, ‘जबतक कोई महापुरुष इन अत्याचारोंके विरोधमें  खडा नहीं होता, तबतक देश एवं धर्मकी रक्षा होना संभव नहीं । ’ सभामें  स्मशानजैसी शांति फ़ैल गई । उस समय बाल गोविंदने कहा, ‘‘पिताजी, ये कश्मीरी पंडित आपकी शरणमें आए हैं । बिना आपके  इन्हें कौन साहस बंधाएगा ?’’ पुत्रकी निर्भय वाणी सुनकर पिताने उसे अपनी गोदमें बिठाकर पूछा, ‘‘यदि इनकी  रक्षा  करते समय मेरा सिर कटकर मुझे परलोकमें जाना पडा, तो तुम्हारी रक्षा कौन करेगा ?’ गुरुनानकके अनुयायीयोंकी रक्षा कौन करेगा ? सिक्खोंका नेतृत्व कौन करेगा ? आप तो अभी बच्चे हो । ’’ इसपर बाल गोविंदने उत्तर दिया, ‘‘जब मैं ९ मास मांके गर्भमें था, तो उस समय उस कालपुरुषने मेरी रक्षा की, अब तो मैं ९ वर्षका हूं, तो अब क्या मैं मेरी रक्षा करनेके लिए  समर्थ नहीं हूं ?’’ पुत्रकी यह ओजस्वी वाणी सुनकर ‘गोविंद अब भविष्यका दायित्व संभालनेमें समर्थ है’, इस बातपर उनका  विश्वास हुआ । गुरु तेगबहादूरने तुरंत पांच पैसे तथा नारियल मंगवाकर उसपर अपने पुत्रका सिर टिकाया और गोविंदको गुरुपदपर नियुक्त कर भारतदेशकी अस्मिताकी रक्षा हेतु अपनी देह बलिवेदीपर समर्पण करनेके लिए प्रस्थान किया ।

१ ई. शांति एवं अहिंसाके मार्गसे प्राणोंका बलिदान

करनेकी अपेक्षा दुष्प्रवृत्तियोंसे लडनेकी प्रतिज्ञा लेनेवाले श्री गुरु गोविंदसिंह !

        पिताके महान बलिदानके उपरांत श्री गुरु गोविंदसिंहने सिक्ख पंथकी शांति एवं अहिंसाके मार्गसे प्राणोंका बलिदान करनेकी नीतिको निरस्त करनेवाली प्रतिज्ञा की । यही प्रतिज्ञा  देश तथा धर्मके लिए शत्रुओंपर निर्णायक विजय पानेके लिए श्री गुरु गोविंदसिंहके जीवनकी प्रेरणा बनी । इतिहास इसका साक्षी है ।

१ उ. औरंगजेबके शाही आदेशको प्रतिआदेश देनेवाले

तथा उससे दो हाथ करनेकी सिद्धता करनेवाले श्री गुरु गोविंदसिंह !

        गुरुजीका रौद्ररूप देखकर देहलीका मुगल शासक चिंतित हुआ । औरंगजेबने सरहिंदके नबाबको आदेश दिया, ‘गुरु गोविंदसिंह यदि साधूका जीवन व्यतीत करना चाहता होगा, स्वयंको बादशाह कहलाना तथा  सैनिकोंको इकठ्ठा करना बंद करता होगा, अपने सिरपर राजाओंसमान सिरपेंच रखना छोड देता होगा, किलेके छतपर  खडा रहकर सेनाका निरीक्षण करना तथा अभिवादन स्वीकारना बंद करता होगा, तो ठीक । वह एक सामान्य ‘संत’के रुपमें जीवन व्यतीत कर सकता है; किंतु यह चेतावनी देनेके पश्चात भी वह अपनी कार्यवाहियां बंद नहीं करता होगा, तो उसे सीमापार करे, उसे बंदी बनाए अथवा उसकी हत्या करें ।  आनंदपूरको पूर्णत: नष्ट करे ।’  औरंगजेबके इस शाही आदेशका गुरुजीपर कुछ भी परिणाम नहीं हुआ । तब फरवरी १६९५ में औरंगजेबने एक और आदेश निकाला, ‘एक भी हिंदू  (जो मुगल राजसत्ताके  कर्मचारी हैं उन्हें छोडकर ) सिरपर चोटी न रखे, पगडी न पहने, हाथमें शस्त्र न ले । उसी प्रकार पालकीमें, हाथियोंपर तथा अरबी घोडोंपर न बैठे । ’ गुरुजीने इस अवमानकारक आदेशको आव्हान देकर प्रतिआदेश निकाला, ‘मेरे सिक्ख बंधु केवल चोटीही नहीं  रखेंगे , वे संपूर्ण केशधारी होंगे तथा वे केश नहीं कटवाएंगे । मेरे सिक्ख बंधु  शस्त्र धारण करेंगे, वे हाथियोंपर, घोडोंपर तथा  पालकीमें भी बैठेंगे । ’

२. गुरु गोविंदसिंहका ज्ञानकार्य !

२ अ. उत्कृष्ट योद्धा श्री गुरु गोविंदसिंहके ब्राह्मतेजका 

प्रत्यय देनेवाला वीररस तथा भक्तिरससे परिपूर्ण साहित्य !

१. ‘नाममाला’ ( १२ वर्षकी आयुमें रचा ग्रंथ)
२. ‘मार्कंडेय पुराण’ का हिंदीमें  अनुवाद
३. तृतीय चण्डी चरित्र
४. चौबीस अवतार
५. विचित्र नाटक
६. रामावतार
        इन प्रमुख ग्रंथोंकी रचनाओंके साथ-साथ ‘श्रीकृष्णावतार कथा’, ‘रासलीलाका भक्तिरस ’ एवं ‘युद्धनीति ’जैसे विषयोंपर भी  गुरुजीने  लेखन किया है ।

२ आ. इतिहास तथा प्राचीन ग्रंथोंको सुलभ

भाषामें लिखकर उनका पुनरुत्थान करनेवाले गुरुजी !

        गुरु गोविंदसिंहने अपने सैनिकी, साहित्यिक एवं शिक्षासे संबंधित उपक्रमोंमें गति लानेके लिए हिमाचल प्रदेशके नाहन राज्यमें  यमुना नदीके दक्षिण तटपर ‘पावटा’ नामक नगर बसाया । पूरे देशके चुने हुए  ५२ कवियोंको ‘पावटा’में आमंत्रित कर देशका इतिहास एवं प्राचीन ग्रंथोंका सुलभ भाषामें लेखन करवाया । अमृतराय, हंसराय, कुरेश मंडल एवं अन्य विद्वान कवियोंको संस्कृत भाषाके ‘चाणक्यनीति,’ ‘हितोपदेश’ एवं ‘पिंगलसर’ इत्यादि ग्रंथोंका भाषांतर करनेका कार्य सौंपा । गुरुजी स्वयं उत्कृष्ट साहित्यकार थे ।  गुरुजींके हिंदी, ब्रज तथा पंजाबी भाषाके अनेक ग्रंथ वीररससे भरे हैं।

२ इ. गुरु गोविंदसिंहने प्राचीन ग्रंथोंके  गहन अध्ययनका मह्त्व जानकर  पांच सिक्खोंको संस्कृत

भाषाकी विधिवत शिक्षाके लिए काशी भेजना तथा उसीके द्वारा ‘निर्मल परंपरा’ की अधारशिला स्थापित करना

        गुरुजी अपने सिक्ख खालसा पंथमें संस्कृतके प्राचीन काव्य तथा ग्रंथोंके भावार्थके माध्यमसे नई चेतना जागृत करना चाहते थे । केवल पौराणिक ग्रंथ भाषांतरित कर काम नहीं चलेगा, उनका गहन अध्ययन भी  आवश्यक है, यह बात वे जान गए थे । इस हेतु गुरुजीने पांच सिक्खोंको ब्रह्मचारी वेश धारण करनेका आदेश देकर विशेषकर संस्कृत भाषाकी  विधिवत शिक्षा  हेतु काशी भेजा । यहींसे  ‘निर्मल परंपरा’ का आरंभ हुआ । इसके उपरांत ‘निर्मल परंपरा’ तथा संस्थाको धर्मप्रसारका कार्य सौंपा ।

२ ई. श्री गुरु गोविंदसिंहके ग्रंथ एवं कविता !

        ‘हिंदु तथा सिक्ख भिन्न नहीं हैं । उनकी शिक्षा भी भिन्न नहीं है । सिक्ख पंथ महान हिंदु धर्मका एक अविभाज्य अंग है ।  हिंदुओंके धर्मगं्रथ, पुराण एवं दर्शनोंद्वारा प्राप्त  ज्ञान श्री गुरु गोविंदसिहने ‘गुरुमुखी’में प्रस्तुत किया है । यदि हिंदू जीवित रहे, तो ही सिक्ख जीवित रहेंगे । क्या हम अपनी धरोहर (पूर्वापार  परंपराएं) छोड देंगे ?’ - मास्टर तारासिंह
(२९.८.१९६४ को मुंबई स्थित सांदिपनी आश्रममें विश्व हिंदु परिषदकी स्थापनाके  समय किए भाषणका अंश) (गीता स्वाध्याय, जनवरी २०११)

३. औरंगजेबको भेजे गए मृत्यु-संदेशके

राजपत्रसे उनकी स्पष्टोक्ति, आत्मविश्वास तथा वीरताका परिचय !

        औरंगजेब ! मैं यह मृत्यु-संदेश तुम्हें उस शवितका स्मरण कर भेज रहा हूं, जिसका  स्वरूप तलवार एवं खंजीर है । जिसके  दांत तीक्ष्ण हैं तथा जिसके दर्शन खंजीरकी नोंकपर स्पष्ट हो रहे हैं  । वह युद्धमें जीवनदान देनेवाले योद्धामें है । तुमपर वायुवेगसे कूदकर तुम्हें नष्ट करनेवाले अश्वमें है । हे मूर्ख ! तू स्वयंको ‘औरंगजेब’ (सिंहासनकी शोभा) कहलाता है; किंतु क्या  तुम्हारे जैसा पाखंडी, हत्यारा, धूर्त क्या कभी ‘सिंहासनकी शोभा’ बन सकता है ?  हे विध्वंसक  औरंगजेब, तुम्हारे नामका ‘जेब’ शोभा नहीं बन सकता ।  ‘तुम्हारे हाथकी माला कपटका जाल है, ’यह बात सब जानते हैं । जिसके मनमें केवल जालमें फांसनेवाले आखेटक (शिकारी) दाने हैं । तुम्हारी वंदना केवल दिखावा है तथा तुमने किए पापोंपर पर्दा डालने जैसा है । अरे पापी ! तुम वही हो, जिसने केवल राज्यकी लालसासे अपने वृद्ध पिताके साथ कपट किया  । तुम वही हो, जिसने अपने सगे भाईको  मारकर  उसके खूनसे अपने हाथ रंगे हैं ।
        तुम्हारी नसनससे निरपराध लोगोंके खूनकी बू आ रही है ।  हे क्रूरकर्मा ! वह दिन अब दूर नहीं, ‘कारागृहसे उठनेवाली तुम्हारे पिताजीकी ध्वनि, पीडितोंके खूनसे रंगी तुम्हारी इस अत्याचारी सत्ताको जलाकर भस्म करेगी । ’ (गीता स्वाध्याय, जानेवारी २०११)

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