Wednesday, July 2, 2014

भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक महाकवि कालिदास

संस्कृत भाषाके एक महाकवि एवं नाटककारके रूपमें पहचाने जानेवाले संत कालिदास विक्रमादित्यके दरबारमें उनके नवरत्नोंमेंसे एक थे । उनका जीवनवृत्तांत, कवित्व तथा उनकी चतुरताके बारेमें अनेक कथाएं प्रचलित हैं ।
        कालिदासजीका जन्म ब्राह्मण कुलमें हुआ । श्रुति, स्मृति, पुराण, सांख्य, योग, वेदांत, संगीत, चित्रकला इत्यादि शास्त्र एवं कलाओंके वे उत्तम ज्ञाता थे । उन्हें विद्या तथा विद्यागुरुके प्रति नितांत आदर था । उनकी नैसर्गिक प्रतिभाको शास्त्राभ्यासकी, कलापरिचयकी एवं सूक्ष्म अवलोकनकी जोड मिली थी । भावकवि, महाकवि एवं नाटककार, इन तीनों भूमिकाओंको उन्होंने समानरूपसे एवं सफलतापूर्वक जीवनमें उतारा हैं ।

भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक कवि कालिदास

        कालिदास भारतीय संस्कृतिके प्रतिनिधिक कवि हैं । उनके काव्यका समाज श्रुतिस्मृतिप्रतिपादित नियमोंका अनुसरण करनेवाला है ।  इस समाजके लिए उन्होंने अनेक स्थानोंपर दिव्य जीवन विषयक संदेश दिया । कालिदासका प्रत्येक कृत्य त्यागप्रधान प्रेमकी महानता कथन करनेवाला है । कालिदासका संदेश यही है कि, त्याग एवं तपस्याके अतिरिक्त कोई भी बात उज्ज्वल नहीं हो सकती । राजा एवं राज्यपदके विषयमें कालिदासके विचार मनु समान ही हैं । अनेक स्थानोंपर उन्होंने मनुका उल्लेख किया है । कालिदासकी मान्यता है कि ईश्वरसे ही राजाको राज्याधिकार प्राप्त होता है ।
        प्रा. ए. बी. कीथ के मतानुसार कालिदासद्वारा दिलीप राज्यके रूपमें एक कर्तव्यनिष्ठ आदर्श प्रजापालकका चित्र रेखांकित किया गया है । उसका रघुराजा सद्गुणोंका पुतला ही है; वह प्रजाका खरा पिता था ।
        कालिदासके काव्यमें उनकी सूक्ष्म निरीक्षणशक्तिका स्थान-स्थानपर भान होता है । उनकी विशेषताओंमें प्रकृतिका अवलोकन करके, उसमेंसे मार्मिक अंश ग्रहण करना इत्यादि हैं । उनके काव्यमें मानव एवं प्रकृति मानो एकात्म होकर आगे आते हैं । कालिदासकी प्रतिभा सर्वतोमुखी है । उनकी शैलीको साहित्याचार्योंने आदर्शभूत घोषित कर, उसे ‘वैदर्भी रीति’ नाम दिया गया है । कालिदासका ‘रघुवंश’ महाकाव्य भारतीय टीकाकारोंने सर्वोत्कृष्ट माना है । इस काव्यके कारण उन्हें ‘कविकुलगुरु’ उपाधि प्राप्त हुई; अपितु टीकाकार उसे ‘रघुंकार’ कहना ही अधिक पसंद करते हैं । ‘क इह रघुकारे न रमते ’ - रघुकार कालिदासके स्थानपर कौन रममाण नहीं ? ऐसी उस विषयमें उक्ति है । इससे इस काव्यकी लोकप्रियता ध्यानमें आती है । रघुवंशमें नायक अनेक हैं, तब भी उस उन्नीस सर्गके महाकाव्यमेंका एकसूत्रता कहीं भी न्यून नहीं होती है । इसके लिए कालिदासको ‘रसेश्वर’ पदवी प्राप्त हुई हैं ।
वैदर्भी कविता स्वयं वृतवती श्रीकालिदासं वरम् ।
अर्थ : वैदर्भी कवितासे कालिदास इस वरको स्वयं ही वर लिया है । उनके काव्यमें पढकर निकाले अर्थ की अपेक्षा जो वास्तविक है उसको ही अधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है । उन्होंने उपयोग किए विपर्यय (विलोम) यह भी सुलभ; परंतु बडा आशय व्यक्त करते हैं । उदा. - कालिदास की रचनाएं
न हरीश्वरव्याहृतय: कदाचित् पुष्णन्ति लोके विपरीतमर्थम् ।
अर्थ : महात्माओंके वचन किसी भी देश-काल अवस्थामें कभी भी मिथ्या नहीं होते ।
क्रियाणां खलु धर्म्याणां सत्पत्न्यो मूलकारणम् ।
अर्थ : धार्मिक क्रियाओंके लिए पतिव्रता स्त्री मुख्य साधन होती है ।
प्रतिबध्नाति हि श्रेय पूज्यपूजाव्यतिक्रम: ।
अर्थ : पूज्य व्यक्तियोंकी पूजामें (श्रेष्ठोंको मान देनेमें) यदि उलंघ्न हो गया, तो अतिक्रम करनेवाले व्यक्तिके कल्याणको प्रतिबंध करता है ।

        यह और ऐसे ही उनके अनेक लोकोत्तर गुणोंपर लुब्ध होकर जयदेवने कालिदासको ‘कविताकामिनीका विलास’ कहा है । बाणभट्टने उनके काव्यको ‘मधुरसान्द्रमंजिरी’ की उपमा दी है । राजशेखरने उन्हें रससिद्ध सत्कविके अग्रभागी ले जाकर बिठाया है । उसके विषयमें आगे दिया सुभाषित तो सुप्रसिद्ध ही है -
पुरा कवींना गणनाप्रसंङगे कनिष्ठिकाधिष्ठितकालिदास:।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिकासार्थवती बभूव ।।
अर्थ : पूर्वमें कविके गणनाप्रसंगी कनिष्ठकापर कालिदासको अधिष्ठित किया गया; (परंतु) अबतक उनकी समानताके कवि निर्मित न होनेके कारण अगली अंगुली जो अनामिका है वह खरे अर्थमें अनामिका ही सिद्ध हुई ।

यह रससिद्ध कवीश्वर इस प्रकार रसिकोंके हृदयमें अजय-अमर हुए हैं ।
संदर्भ - भारतीय संस्कृतिकोश, खंड क्र.२


कालिदासके काव्यमें प्रकृति-वर्णन

        आजका आधुनिक एवं भौतिक युगमें लोग प्रकृतिको भूलते जा रहे हैं । प्रकृति ही मानवकी सहचरी एवं साक्षात् परमात्माका रूप है और इसके साथ तादात्म्य रखनेसे ही परमानन्दकी प्राप्ति होती है; क्योंकी मनुष्य जब सभी प्रकारके कृत्रिम साधनोंसे उब जाता है, नीरस हो जाता है तो उसको वास्तविक सुख प्रकृतिकी गोदमें ही प्राप्त होता है । विश्वकवि कालिदास अपने काव्यसे प्रकृति-चित्रणकी दृश्यावलीको सजीव, साक्षात रूपमें हमारी नयनोंके सामने चित्रित करते हैं । महाकविकी ७ रचनाएं विश्व-प्रसिद्ध हैं ।
 
गीतिकाव्य एवं खण्डकाव्य -
१. ऋतुसंहारम् 
२. मेघदूतम्
महाकाव्यम् -
. कुमारसम्भवम् 
४. रघुवंशम्
नाटक -
५. मालविकाग्निमित्रम् 
६. विक्रमोर्वशीयम्
७. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।
        इन सभी गीतिकाव्यों तथा नाटकोंमें महाकवि कालिदासने प्रकृति-चित्रणको तथा प्रकृति-चित्रणमें वर्ण (रंग) संयोजनकी छटा, रसभाव- प्रवणता और मौलिक उद्भावनाओंको कोमलकान्त पदावलीमें ऐसा चित्रित किया है कि इसको ह्रदयंगम करते ही इस दुःख-दैन्यभरे पापतापमय संसारका साथ छूट जाता है ।
        प्रकृति-सम्राट महाकवि कालिदासने प्राकृतिक दृश्योंकी छटारूपी मन्दाकिनीको भारतवर्षके काव्यभूतलपर अविच्छिन्न काव्यधाराके रूपमें प्रवाहमान किया है । इस काव्यधाराने कहीं सूर्योदयके समय निकलेवाली लालिमाको, कहीं हिमालय, मेघ, पशु-पक्षी, लता, सरिता आदिके सौंदर्यको, तो कहीं खेतों-खलिहानों, वनों तथा उद्यानों, नदियों और तडागोंको तो कहीं फल-फूलयुक्त वनस्पतियों, चौकडी भरते हिरण, वराह, नृत्य करते मयुरों, आकाशमें उडते हंस, बक आदिको ऐसा चित्रित किया है; मानो ये सब प्रकृतिके रूपमें साक्षात दृष्टिगोचर हो रहे हों ।
        पृथ्वी एवं स्वर्गलोकके अखिल सौंदर्य, लावण्य एवं रमणीयताको यदि एक ही नामसे व्यक्त करना हो तो केवल कलाकी अथाह अनुभूतिका प्रमाणिक नाम ‘ऋतुसंहारम्’ कहनेसे ही सब स्पष्ट हो जाता है । यह महाकविकी प्रथम रचना है । जिसमें प्रकृति-चित्रणके अनेकानेक चित्र अनायास ही परिलक्षित होते हैं । एक श्लोकमें कवि कहते हैं-
‘विपाण्डुरं कीटरजस्तृणान्वितं भुजङ्गवद्वक्रगतिप्रसर्पितम ।’
अर्थात जब वर्षाका पानी घरोंकी दिवारोंसे प्रथम बार टेढी-मेढी लकीरें बनाता हुआ पीले-पीले सुखे पत्तोंको हटाता हुआ ऐसा प्रतीत होता aहै, मानो काला भुजंग वनमें विचरण कर रहा हो ।

‘मेघदूत’ में भी प्रकृतिके अनुपम वर्णनकी छटा हमें बहुत अधिक प्रभावित करती है, कोई यक्ष जब पहाडी ढलानपर मेघको देखता है, तो वह उस मेघसे अत्यधिक प्रभावित हो जाता है और उसी समय वह यक्ष कह उठता है -
‘धूमो ज्योतिः सलिलमरुतां सन्निपातः क्व मेघः । ’
अर्थ : इस प्रकार धुआं, अग्नि, जल, एवं वायुके समन्वितरूप मेघका ऐसा आकार कालिदास चित्रित करते हैं, मानो आकाशमें मेघ स्वयं ही पर्वतशिखर जैसा सजीव हो उठता है, न केवल मेघ अपितु मालक्षेत्रसे हिमालयकी तराईमें बसी अलकातकके वर्णनमें कालिदासने प्रकृतिके विभिन्न चित्रोंका इतना ह्रदयग्राही वर्णन किया है कि पाठक आत्ममुग्ध, मंत्रमुग्ध हो उठता है । 
        हम यदि महाकवि कालिदासके ‘कुमारसम्भव’ को देखे, पढे तो उसमें भी प्रकृति-चित्रणके ऐसे रमणीय चित्र विद्यमान हैं, जो हमें सहज ही आकृष्ट कर लेते हैं । प्रथम सर्गके प्रथम श्लोकमें -‘अस्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा’ (१.१) इस श्लोकमें हिमालयका महाकविने ऐसा विशद चित्रण किया है, मानो वह पृथ्वीको मापनेका एक अति विशाल शुभ्र दंड हो । कुमारसम्भवमें शिवके महिमामय स्वरूपका दर्शन भी प्रकृति-चित्रणको परिलक्षित करता है -
        चर्मपर बैठे हुए समाधिस्थ शिवका जटा-जूट सर्पोंसे बंधा है, अपने अधखुले नयनोंसे शरीरके भीतर चलनेवाले सब वायुको रोककर शिव इस प्रकार अचल बैठे हैं, जैसे न बरसनेवाला श्याम जलधर (बादल) हो, बिना लहरोंवाला निश्चल गम्भीर जलाशय हो या अचल पवनमें विद्यमान दीपशिखावाला दीपक हो ।
        यदि ‘रघुवंशम्’ को ही लें तो इसमें महाकविने प्राकृतिक छटारूपी मन्दाकिनीको इस प्रकार प्रवाहित किया है, मानो संसारके समस्त रसिकजन उसमें गोता लगाते-लगाते थक गए हों, भूल गए हों । ‘रघुवंशम्’ के द्वितीय सर्गके श्लोक- ‘पुरस्कृता वर्त्मनि’ में राजा दिलीप और धर्मपत्नी सुदक्षिणाके बीच नन्दिनी गाय इस प्रकार सजीव चित्रित होती है, मानो दिन और रात्रिके मध्य सन्ध्याकालीन लालीमा हो । ऐसा चित्र कालिदास ही उपस्थित कर सकते हैं । अन्य कवियोंके लिए यह सर्वथा दुर्लभ और अकल्पनिय ही है ।
        हम यदि ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ को लें तो उसमें भी प्राकृतिक दृश्योंका ऐसा अद्भुत और मर्मस्पर्शी वर्णन है कि पाठक उसमें अभिभूत-सा हो जाता है । अभिज्ञानकी नायिका अप्रतिमसुन्दरी शकुन्तला प्रकृतिकी साक्षात् पुत्री परिलक्षित होती है । तपोवनके मृगों, पशु-पक्षीयों तथा लतापादपोंके प्रति उसका ह्रदय बान्धव-स्नेहसे आप्लावित है । तपोवनकी पावन प्रकृतिकी गोदमें पली निसर्गकन्या शकुन्तला जिस समय आश्रम तरुओंको सींचती हुई हमारे सम्मुख आती है, उस समय आश्रमके वृक्षोंके प्रति उसका स्नेह ऐसा प्रतीत होता है, मानो वे उसके सहोदर हों । उसकी विदाईके समय लताओंके पील-पीले पत्ते इस पअकार आभाविहीन दृष्टिगोचर होते हैं, मानो वे स्वयं अश्रुपात कर रहे हों ।
        ऐसा ही चित्रण ‘विक्रमोर्वशीयम्’ के प्रथम अंकमें भी है - ‘आविर्भूते शशिनि तमसा मुच्यमानेव रात्रिः ...’। (७.१) यहां चंद्रमा उदित हो रहा है और रात्रि अन्धकारमें परदेसे निकलती जाती है तथा धुएंका आवरण क्रमशः अदृश्य होता चला जा रहा है, कगारोंके गिरनेसे प्रकृतिका यह दृश्य कितनी गहराईसे प्राकृतिक छटाकी अभिव्यक्तिको चित्रित करता है, यह भी अन्यत्र दुर्लभ है ।
        महाकवि कालिदासने अपने काव्यों और नाटकोंमें प्राकृतिक दृश्योंको ऐसा चित्रांकित किया है, जिसका सौन्दर्य देखते ही बनता है । कालिदासकी सौन्दर्य-दृष्टि भी भारतीय संस्कृतिके मूल्यों और आदर्शोंके अनुरूप पवित्र एवं उदार है । तपस्यासे अर्जित सौन्दर्यको ही महाकवि कालिदास सफल मानते हैं । महाकविके साहित्यका सौन्दर्य और उनकी सौन्दर्य-दृष्टि अनुपम है, अतुलनिय है, जिसका अनुकीर्तन शताब्दियोंसे हो रहा है और सदैव-सदैव होता भी रहेगा ।

साभार : श्रीराजकुमारजी रघुवंशी, कल्याण वर्ष ८३, संख्या १०

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